परछाई मात्र थे तुम
मैं मूढ़
ढूँढती रही
भौतिक अस्तित्व तुम्हारा
बहुत चाहा ... छू लूँ तुम्हें
महसूस कर पाऊं
स्पर्श तुम्हारा
कुछ क्षण को ही चाहे
मिल पाए सानिध्य तुम्हारा..
हुए आभासित तुम, तुमको
आलिंगनबद्ध करने को फैला दीं
मैंने अपनी व्याकुल बाहें
अंजुरी में भर तुम्हें
नयन से पी आकंठ तृप्ति की चाह
फिर रही अतृप्त, फिर रही अधूरी
..... हाँ......
गगन सम तुम
अनंत विस्तार तुम्हारा
कहाँ समाते ..मेरी आँखों, मेरी बाहों
मेरी नन्हीं हथेलियों में
मैं तृषित, भ्रमित, उद्द्विग्न
देर तक
बस हाथ बढ़ा
सहलाती रही
वो धरा जहाँ थी पड़ रही
परछाई तुम्हारी..........
दिल को छूती बहुत भावमयी प्रस्तुति...बहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद कैलाश जी!
Deleteसहलाती रही परछाई......
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..
सस्नेह
अनु
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteसर्वशक्तिमान सोचा ही गया है दिखा नहीं कभी
सौभाग्य है परछाई दिख गई किसी को अगर !
मैं नन्हीं सी परछाईं तुम्हारी
ReplyDeleteतुम्हें पकड़ने की लालसा में तुम्हारे साथ चलती गई
....... वाह
बहुत सुंदर भाव लिए उत्कृष्ट रचना ....!
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नई पोस्ट-: चुनाव आया...
सच है की कभी कभी हथेली से भी आकाश नापा जा सकतां है ... एहसास होना चाहिए प्रेम का ...
ReplyDeleteबहुत गहन और सुन्दर पोस्ट |
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