कुण्डलिया
सावन संग आज लगी, सखी नैन की होड़|
मान हार कौन अपनी, देत बरसना छोड़||
देत बरसना छोड़, नैन परनार बहे हैं |
कंचुकि पट भी भीज , विरह की गाथ कहे हैं ||
पड़े विरह की धूप, जले है विरहन का मन|
हिय से उठे उसाँस, बरसे नैन से सावन ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteहिंदी ब्लॉगर्स चौपाल पर आज की चर्चा : पीछे कुछ भी नहीं -- हिन्दी ब्लागर्स चौपाल चर्चा : अंक 012
ललित वाणी पर : इक नई दुनिया बनानी है अभी
सुन्दर ...
ReplyDeletekavya ki har vidha me parangat ho aap :)
ReplyDeleteshukriya mukesh ji :)
Deleteबहुत बढ़िया,सुंदर सृजन !!!
ReplyDeleteRECENT POST : मर्ज जो अच्छा नहीं होता.
वाह अन्यतम भाव , सुन्दर कुंडली
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (30.09.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,धन्यबाद।
ReplyDeleteविरह का वर्णन करने वाला सुंदर छंद। नयनों से सावन बरसने की कल्पना पीडा को और गहरा बना देता है।
ReplyDeletehardik aabhaar dr. vijay shinde ji !
Deleteबहुत सुन्दर कुण्डलियाँ
ReplyDeleteनई पोस्ट अनुभूति : नई रौशनी !
नई पोस्ट साधू या शैतान
bahut sundar prastuti
ReplyDeleteसुन्दर होड़ नैनों की .... रस जैसे बरसते शब्द ... बहुत सुन्दर भाव ...
ReplyDeletesunder prastuti.
ReplyDeletebahut hi sunder bhaav liye rachna
ReplyDeleteshubhkamnayen
विरह की आंच से संसिक्त सात्विक रचना छंद सिद्ध।
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