Friday, 12 May 2017

तुम सूर्य, मैं धरा

तुम सूर्य, 
मैं धरा 
यूँ तो अस्तित्व मेरा तुमसे 
तुमसे बँधी नियति मेरी,
पर कैसा यह विधान 
कि बँधी अपनी धुरी से
तुम्हें देखती मैं
चहुँ ओर तुम्हारे घूमती भी
पर कभी तोड़ वलय सीमा
नहीं पहुँच पाती तुम तक|
क्षीण कर अपना तेज
तुम भी नहीं लाँघते
मर्यादा अपनी|
बस दूर से ही प्रेम ताप दे
रखते जीवित
उस प्रेमांकुर को|
क्योंकि लाँघना सीमाओं को
अक्सर कर देता है
भस्म सब कुछ
क्या प्रेम क्या अस्तित्व.....
तो शून्य से अनंत तक
हर पल निरंतर
प्रतीक्षा विहीन प्रेम में रत
मुझ धरा के
तुम सूर्य|
~~~~~~~~~~~~~
shalini rastogi

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मेरे लिए अनमोल है.अगर आपको ये पोस्ट पसंद आई ,तो अपनी कीमती राय कमेन्ट बॉक्स में जरुर दें.आपके मशवरों से मुझे बेहतर से बेहतर लिखने का हौंसला मिलता है.

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...
Blogger Tips And Tricks|Latest Tips For Bloggers Free Backlinks