अच्छी माँ
अच्छी बहन, अच्छी बेटी
अच्छी बहू, अच्छी औरत......
औरत के गिर्द
अच्छाइयों के पत्थर जमाते-जमाते
उसे जीते जी मक़बरा बना दिया
अच्छाई का,
और दफ़न कर दीं
उसकी सब इंसानी भावनाएँ।
और वह अच्छाइयों के तले दबी
सुनती रही सबसे
अपनी अच्छाइयों की गाथाएँ।
कोशिश की जब भी कभी उसने
अच्छाइयों के पत्थर सरकाने की
दरकने लगीं नीवें समाज की।
आखिर औरत के कन्धों पर ही तो धरा था
बोझ संस्कारों का,
संस्कृति का, विचारों का।
नित प्रति कसते जाते
अच्छाइयों के दायरे से,
संकुचित होती जाती
रिवाजों की दीवारों से,
बंद खिड़की-दीवारों से,
झिरियों से , सुराखों से,
जब कभी रिसकर
बह निकली वह औऱ
मौन के आवरण से निकल
गुनगुना उठी तो...
उसके इंसान हीने के दावे को,
अपने वजूद, अपनी पहचान, अपने हक़ में ,
उठती आवाज़ को
विद्रोह की संज्ञा दे
इस जुर्म के एवज
दे दिया गया बस एक नाम..... 'बुरी औरत'
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
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