स्त्री.....
पाताल गंगा-सी
सदियों से बहती रही,
एक कठोर सामाजिक धरातल तले।
नहीं स्वीकृत की गई,
उसके लिए,
उन्मत्त लहरों की उछृंखलता।
छिपाए रखा उसने,
अपनी भाव तरंगों को,
मचलती उमंगों को,
अपने सचल होने को,
चल-चंचल अल्हड़पन को।
नहीं उछल पाई वह,
मस्त पवन की उत्ताल तरंगों पर आरूढ़,
नहीं बह पाई,
मनचाहे, अनजाने रास्तों पर,
काट कर चट्टानें प्रतिबंधों की।
'भोगवती'* की संज्ञा देकर,
प्रयास हुए अथक
लघु करने के .. महत्ता उसकी।
निरंतर हुए घातों से मर्म
भले हुआ क्षत-विक्षत उसका।
पर
उसकी तरलता
नहीं बनी पाषाण
बहती रही वह.... निरंतर, अविरल, अविचल
नहीं दबी .... उसकी अदम्य जिजीविषा।
लाख पहरों, लाख परदों, लाख प्रतिबंधों के तले,
न थमी, न शुष्क हो गतिहीन हुई
धरा तले पाषाणों से,
सिर टकरा चट्टानों से,
बूँद-बूँद रिस दरारों से,
बनाती नए रास्ते
निरंतर रही प्रवाहमान
पाताल गंगा-सी
स्त्री...
(*भोगवती : पाताल गंगा को कहा जाता है, शिव जटा से निकली गंगा तीन धाराओं में विभक्त हो गईं, एक आकाश गंगा, एक धरती पर बही और एक पाताल गंगा बन गयी।)
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
पाताल गंगा-सी
सदियों से बहती रही,
एक कठोर सामाजिक धरातल तले।
नहीं स्वीकृत की गई,
उसके लिए,
उन्मत्त लहरों की उछृंखलता।
छिपाए रखा उसने,
अपनी भाव तरंगों को,
मचलती उमंगों को,
अपने सचल होने को,
चल-चंचल अल्हड़पन को।
नहीं उछल पाई वह,
मस्त पवन की उत्ताल तरंगों पर आरूढ़,
नहीं बह पाई,
मनचाहे, अनजाने रास्तों पर,
काट कर चट्टानें प्रतिबंधों की।
'भोगवती'* की संज्ञा देकर,
प्रयास हुए अथक
लघु करने के .. महत्ता उसकी।
निरंतर हुए घातों से मर्म
भले हुआ क्षत-विक्षत उसका।
पर
उसकी तरलता
नहीं बनी पाषाण
बहती रही वह.... निरंतर, अविरल, अविचल
नहीं दबी .... उसकी अदम्य जिजीविषा।
लाख पहरों, लाख परदों, लाख प्रतिबंधों के तले,
न थमी, न शुष्क हो गतिहीन हुई
धरा तले पाषाणों से,
सिर टकरा चट्टानों से,
बूँद-बूँद रिस दरारों से,
बनाती नए रास्ते
निरंतर रही प्रवाहमान
पाताल गंगा-सी
स्त्री...
(*भोगवती : पाताल गंगा को कहा जाता है, शिव जटा से निकली गंगा तीन धाराओं में विभक्त हो गईं, एक आकाश गंगा, एक धरती पर बही और एक पाताल गंगा बन गयी।)
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शालिनी रस्तौगी
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