Friday, 12 May 2017

एक शहर .... तब और अब

एक शहर  ... तब और अब
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बहुत मिलनसार था कभी यह शहर 
गहरी दोस्ती हुआ करती थी गलियारों में,
गलबहियाँ डाल कर उलझे रहते थे आपस में |
रास्ते मिलते थे अपनेपन से आपस में|
चौराहे अक्सर बैठ किस्से सुनाते थे|
नैन मटक्का कभी करते छज्जे
छतों से छत को कभी पैगाम जाते थे |
पतंगे बेमतलब उलझ पड़ती थी आपस में
सूखते दुपट्टे पड़ोस जाने को बहाने बनाते थे |
वो रोशनदानों के बुलंद ठहाकों के सुर
मोहल्ले को अक्सर गुलज़ार बनाते थे|
न इतनी भीड़ थी न शोर था फिर भी
रौनक थी, चहल-पहल सी रहती थी |
एक अपनाहत थी जो चेहरों पर घरों के
बन मुस्कान हमेशा सजी संवरी सी रहती थी
बहुत खामोश रहते हैं दरवाज़े इस शहर के
खिड़कियाँ भी तो बात अब करती नहीं हैं
ओट से झाँकती चौखटों के लबों पर
जाने कैसी चुप्पी है जो यूँ पसरी हुई है
एक अबोला-सा बिखरा है गलियों में
रस्ते देख इक दूजे को मुँह अब फेर लेते हैं |
यूँ तो ज़माने भर की रौनकें हैं
भीड़ भी बेशुमार है यहाँ
कहीं कुछ खोया है तो वो अपनापन,
वो गर्माहट भरे रिश्ते हैं गुमशुदा
नज़र कैसी लगी है जाने मेरे शहर को आज
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शालिनी रस्तौगी

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