Sunday, 21 September 2014

रिश्ते ( श्रंखला -2 )


रिश्ते 

जो पकते नहीं

 
समय के आंवे पर 


नहीं उठती उनकी महक


रह जाते हैं कच्चे

 
हाँ! नहीं सहार पाते वे


निभाव का जल


संग-संग 'सोहणी' के


हो जाते हैं गर्क


अतल गहराइयों में


और रह जाते हैं उन

के
कुछ बुदबुदाते किस्से


हाँ , अधकचरे ही रह जाते है


कुछ रिश्ते !

रिश्ते ( श्रंखला -1 )

1.

रिश्ते 

कांच से नाजुक भले हों 

पर कांच के नहीं होते


हाँ, नहीं होती आवाज़ 


उनके टूटने की


चुपचाप दम तोड़ देते हैं 


टूट के बिखर जाते हैं


दूर तक फैल जाती हैं 


उनकी किरचें 


दिल, दिमाग़ और पूरे वज़ूद में


चुभती है, खटकती हैं, खरोंचती हैं


बन नासूर रिसते हैं


इनके दिए ज़ख्म


चाहे न हो विलाप

 पर
अंतस में मच जाता हाहाकार 


जब दम तोड़ते हैं


रिश्ते|

फुर्सत

हाँ, फुर्सत तो नहीं है आजकल
पर फिर भी 
रोज़ लिखती हूँ 
कविता ... जेहन में 
उभरते-मिटते से रहते हैं शब्द
बेतरतीब, उलझे से ख्यालों को 
करीने से लगाती हूँ,
सजाती हूँ
हँसी के,ख़ुशी के,
उदासी और गम के
भीड़ और अकेलेपन के
यादों के, वादों के
न जाने कितने भावों के
रच जाते हैं गीत
पर
न जाने कैसी है स्याही
शायद कुछ जादुई
टिकती ही नहीं जेहन के कागज़ पर
लिखते-लिखते ही
उड़ने लगते हैं शब्द
हाथ छुड़ा भागते हैं भाव
कैद करना चाहती हूँ काग़ज़ पर इन्हें
पर हाँ,
फुर्सत ही नहीं है आजकल

कविताओं में कहानियाँ

अक्सर....
ढूँढते हैं लोग 
कविताओं में कहानियाँ
कवि के व्यक्तिगत जीवन से 
जोड़ने लगते हैं कड़ियाँ 
लगाते हैं कयास 
हाँ .. ऐसा हुआ होगा 
या वैसा 
पर समझते नहीं 
कि रचनाओं में उभरने वाले चहरे 
तेरे, मेरे , इसके, उसके
या किसी के भी हो सकते हैं
निज हों या पर
अनुभव ही लेते हैं
रचनाओं का रूप
कलम की नोक से
काग़ज़ पर उभरे शब्द
समाज का ही प्रतिबिम्ब
उकेरते हैं
अक्सर ....

Friday, 12 September 2014

नार्सिसिज़म....

नार्सिसिज़म....
आत्ममोह, आत्म मुग्धता से ग्रस्त
यह मन
चाटुकारिता, प्रशंसा है प्रिय इसे
हो उठता विचलित
ज़रा - सी आलोचना पर 
करता प्रतिवाद , प्रतिकार
पर नहीं करता कभी स्वीकार
कि हो सकती है त्रुटि
उससे भी कहीं
आत्ममुग्धता के भ्रम में जकड़ा
हर सामने वाले को
जादुई आइना समझ
बस सुनना चाहता बार-बार
यही शब्द
"सर्वोत्तम. सर्वश्रेष्ठ हो तुम"
स्वीकारो या न स्वीकारो
पर सत्य यही
है छिपी
हम सब में कहीं
नार्सिसिज़म....

Sunday, 20 July 2014

चाहे न दो प्रत्युत्तर तुम,


चाहे न दो प्रत्युत्तर तुम, 
मन में मेरे संतोष यही,
विनती अपने आकुल हिय की, 
तुम तक मैंने पहुँचाई सही| 

कुछ पीड़ा कुछ संताप लिखे,
कुछ प्रीत भरे उदगार लिखे
हर अक्षर में जिसके मैं थी,
पाती तुम तक पहुँचाई वही|

संदेश नहीं, न संकेत कोई ,
न आस मिलन की लेश कोई ,
सुन एक पुकार आओगे तुम,
मन में प्रतिपल विशवास यही |

न, विरहन न कहना मुझको ,
हर ओर मेरे तुम ही तुम हो ,
हर क्षण तुम में मैं जीती हूँ
है मेरे लिए संजोग यही |

कविता अपनी साकार करूँ


निज सुख, निज पीड़ा से कैसे 
तुमको एकाकार करूँ 
उद्द्वेलित, आडोलित मन के 
संप्रेषित कैसे विचार करूँ 

मैं अपनी करुणा जीती हूँ,
उल्लास रहे तुम जी अपना |
मैं मानूँ ठोस धरातल है
तुम मानो जग निरा सपना |
सुख निद्रा से झंझोड़ तुम्हारे, क्यों सपने निराधार करूँ |

हैं साथ तुम्हारे वे पल-छिन,
जो मेरे जीवन में न आए |
मैंने भी अपनी स्मृति में,
निज दुःख,निज उल्लास छिपाए |
तुम्हारे ह्रदय के भावों का, कैसे मैं साक्षात्कार करूँ |

जो मेरी बातों में अपने से
कुछ पल तुमको मिल जाएँ
तुम चुन कर उनको रख लेना
जो बातें ह्रदय को छू जाएँ
कुछ पल जी कर मैं तुम में, कविता अपनी साकार करूँ

दोहे

1.
जोड़ी जुगल निहार मन, प्रेम रस सराबोर|
राधा सुन्दर मानिनी, कान्हा नवल किशोर||
२.
हरे बाँस की बांसुरी, नव नीलोत्पल गात|
रक्त कली से अधर द्वय,दरसत मन न अघात ||
3
आकुल हिय की व्याकुलता, दिखा रहे हैं नैन|
प्रियतम नहीं समीप जब, आवे कैसे चैन||

4.
मानव प्रभु से पाय के, मनुज देह अनमोल |
सजा सुकर्मों से इसे, सोने से मत तोल ||

5. 
ह्रदय अश्व की है अजब , तिर्यक सी ये चाल 
विचार वल्गा थाम के, साधो जी हर हाल ||

6.
मात पिता दोनों चले , सुबह छोड़ घर द्वार |
बालक नौकर के निकट, सीखे क्या संस्कार ||

7.
चिंतन मथनी से करें , मन का मंथन नित्य |
पावन  बनें विचार तब , निर्मल होवें कृत्य ||

8.
इज्ज़त पर हमला कहीं, कहीं कोख में वार |
मत आना तू लाडली, लोग यहाँ खूंखार ||

9.
बन कर शिक्षा रह गई, आज एक व्यापार |
ग्राहक बच्चे हैं बने, विद्यालय बाज़ार  || 

10.
इधर बरसते मेघ तो , उधर बरसते  नैन |
इस जल बुझती प्यास औ, उस जल जलता चैन || 

11.
सावन आते सज गई , झूलों से हर डाल|
पिया गए परदेस हैं, गोरी हाल बेहाल ||

12
कोयल कूके  बाग़ में, हिय में उठती हूक |
सुन संदेसा नैन का, बैन रहेंगे मूक ||

13. 
संस्कृति जड़ इंसान की, रखें इसे सर-माथ |
पौधा तब तक है बढ़े, जब तक जड़ दे साथ ||

14.
नाजुक-सी  है चीज़ ये , ग़र आ जाए  खोट |
जीभ तेज़ तलवार सी, करे मर्म पर चोट ||

15.
रखा गर्भ में माह नौ , दिए देह औ प्रान |
वो माँ घर में अब पड़ी, ज्यों टूटा सामान ||

16
संग निभाने हैं हमें , कर्त्तव्य व अधिकार |
हो स्वतंत्रता का तभी, स्वप्न  पूर्ण साकार ||

17
नारी धुरी समाज की, जीवन का आधार |

डूब जायगी सभ्यता, बिन नारी मझधार ||

18 
ऊपर बातें त्याग की, मन में इनके  खोट |
दुनिया को उपदेश दें , आप कमाएँ नोट ||

19.
नैनन अश्रु धार ढरै, हिय से उठती भाप|
दिन के ढलते आस ढले, रात चढ़े तन ताप||

20.
कर्म देख इंसान के , सोच रहा हैवान|
काहे को इंसानियत, खुद पे करे गुमान ||

21. 
कोसे अपनी कोख को , माता करे विलाप |
ऐसा जना कपूत क्यों, घोर किया है पाप ||

22.
अपनी संस्कृति सभ्यता, लोग रहे हैं छोड़ |
हर कोई है कर रहा , पश्चिम की ही होड़  ||
23
धरती माँ की कोख में, पनप रही थी आस |
अग्नि बन नभ से बरसा, इंद्रदेव का त्रास ||
24

व्याकुल हो इक बूँद को, ताके कभी आकास|
कभी बरसते मेह से, टूटे सारी आस ||

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