Sunday 20 July 2014

दोहे

1.
जोड़ी जुगल निहार मन, प्रेम रस सराबोर|
राधा सुन्दर मानिनी, कान्हा नवल किशोर||
२.
हरे बाँस की बांसुरी, नव नीलोत्पल गात|
रक्त कली से अधर द्वय,दरसत मन न अघात ||
3
आकुल हिय की व्याकुलता, दिखा रहे हैं नैन|
प्रियतम नहीं समीप जब, आवे कैसे चैन||

4.
मानव प्रभु से पाय के, मनुज देह अनमोल |
सजा सुकर्मों से इसे, सोने से मत तोल ||

5. 
ह्रदय अश्व की है अजब , तिर्यक सी ये चाल 
विचार वल्गा थाम के, साधो जी हर हाल ||

6.
मात पिता दोनों चले , सुबह छोड़ घर द्वार |
बालक नौकर के निकट, सीखे क्या संस्कार ||

7.
चिंतन मथनी से करें , मन का मंथन नित्य |
पावन  बनें विचार तब , निर्मल होवें कृत्य ||

8.
इज्ज़त पर हमला कहीं, कहीं कोख में वार |
मत आना तू लाडली, लोग यहाँ खूंखार ||

9.
बन कर शिक्षा रह गई, आज एक व्यापार |
ग्राहक बच्चे हैं बने, विद्यालय बाज़ार  || 

10.
इधर बरसते मेघ तो , उधर बरसते  नैन |
इस जल बुझती प्यास औ, उस जल जलता चैन || 

11.
सावन आते सज गई , झूलों से हर डाल|
पिया गए परदेस हैं, गोरी हाल बेहाल ||

12
कोयल कूके  बाग़ में, हिय में उठती हूक |
सुन संदेसा नैन का, बैन रहेंगे मूक ||

13. 
संस्कृति जड़ इंसान की, रखें इसे सर-माथ |
पौधा तब तक है बढ़े, जब तक जड़ दे साथ ||

14.
नाजुक-सी  है चीज़ ये , ग़र आ जाए  खोट |
जीभ तेज़ तलवार सी, करे मर्म पर चोट ||

15.
रखा गर्भ में माह नौ , दिए देह औ प्रान |
वो माँ घर में अब पड़ी, ज्यों टूटा सामान ||

16
संग निभाने हैं हमें , कर्त्तव्य व अधिकार |
हो स्वतंत्रता का तभी, स्वप्न  पूर्ण साकार ||

17
नारी धुरी समाज की, जीवन का आधार |

डूब जायगी सभ्यता, बिन नारी मझधार ||

18 
ऊपर बातें त्याग की, मन में इनके  खोट |
दुनिया को उपदेश दें , आप कमाएँ नोट ||

19.
नैनन अश्रु धार ढरै, हिय से उठती भाप|
दिन के ढलते आस ढले, रात चढ़े तन ताप||

20.
कर्म देख इंसान के , सोच रहा हैवान|
काहे को इंसानियत, खुद पे करे गुमान ||

21. 
कोसे अपनी कोख को , माता करे विलाप |
ऐसा जना कपूत क्यों, घोर किया है पाप ||

22.
अपनी संस्कृति सभ्यता, लोग रहे हैं छोड़ |
हर कोई है कर रहा , पश्चिम की ही होड़  ||
23
धरती माँ की कोख में, पनप रही थी आस |
अग्नि बन नभ से बरसा, इंद्रदेव का त्रास ||
24

व्याकुल हो इक बूँद को, ताके कभी आकास|
कभी बरसते मेह से, टूटे सारी आस ||

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