Sunday, 21 September 2014

फुर्सत

हाँ, फुर्सत तो नहीं है आजकल
पर फिर भी 
रोज़ लिखती हूँ 
कविता ... जेहन में 
उभरते-मिटते से रहते हैं शब्द
बेतरतीब, उलझे से ख्यालों को 
करीने से लगाती हूँ,
सजाती हूँ
हँसी के,ख़ुशी के,
उदासी और गम के
भीड़ और अकेलेपन के
यादों के, वादों के
न जाने कितने भावों के
रच जाते हैं गीत
पर
न जाने कैसी है स्याही
शायद कुछ जादुई
टिकती ही नहीं जेहन के कागज़ पर
लिखते-लिखते ही
उड़ने लगते हैं शब्द
हाथ छुड़ा भागते हैं भाव
कैद करना चाहती हूँ काग़ज़ पर इन्हें
पर हाँ,
फुर्सत ही नहीं है आजकल

1 comment:

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