एक सुरमई साँझ
दूर क्षितिज पर
उदास बैठी धरती ने
हसरत भरी नज़र से
देख गगन को यूँ कहा ....
हरेक के लिए इस दुनिया में
है एक क्षितिज
जहाँ
हम- तुम मिलते हैं
पर मैं और तुम
क्यों नहीं रच पाते
अपना कोई क्षितिज
जहाँ तुम
अपनी विशाल बाहों में
समेट लो मेरा वजूद
जहाँ हम मिलते से
आभासित ही न हो
वरन
मिल हो जाएँ
एक
बहुत सुंदर बिंब उकेरे हैं आपने, शब्द भी निर्बाध बह रहे हैं। बहुत सुंदर !
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सुशीला जी!
Deleteबहुत सुन्दर......
ReplyDeleteकोमल एहसास.....
अनु
धरती और आकाश ये दो ही तो छोर हैं जीवन के .ये मिलतें कहाँ हैं .इक दूसरे को समझातें हैं .धरती पे रहो आकाश में मत उड़ो.बहुत सुन्दर प्रस्तुति है हदों का अतिक्रमण करने को आतुर .
ReplyDeleteअतिक्रमण करने की आतुरता ही अप्राप्य को प्राप्त करने को व्याकुल कर देती है.... भहुत बहुत धन्यवाद वीरू भाई !
Deleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteहिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ!
सादर
धन्यवाद यशवंत जी...
Deleteजहाँ मिलन होता है क्षितिज वहीं आ जाता है ...
ReplyDeleteबस मिलन का प्रयास करते रहना चाहिए ... क्षितिज तो आ ही जायगा ...
बिल्कुल सही कहा आपने, दिगम्बर जी ... धन्यवाद!
Deleteकाश ऐसा भी हो पाता ......!
ReplyDeleteकाश....
Deleteधन्यवाद सरस जी!
wah... bahut behtareen..:)
ReplyDeletefollow karna pada..
ab barabar aaunga...:)
बिल्कुल मुकेश जी.... हमारे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
Deleteबहुत ही खुबसूरत,,,क्षितिज का भ्रम तोड़ कर एक हो जाने कि तमन्ना ।
ReplyDeleteऐसी ही नजाने कितनी हसरतें लिए फिरता है इंसान जिंदगी भर.... धन्यवाद इमरान जी!
Deleteबहुत सुन्दर......बहुत ही खुबसूरत
ReplyDeleteजहाँ मिलन होता है क्षितिज वहीं आ जाता है ... खूबसूरत
ReplyDeleteसही कहा संजय जी, बहुत-बहुत धन्यवाद!
Deleteअपने ब्लॉग परिवार में शामिल करने के लिए आभार रश्मि जी!
ReplyDeleteधन्यवाद सदा जी!
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर वर्णन किया है आपने खुबसूरत
ReplyDeleteधन्यवाद अरुण!
Delete:)
ReplyDeleteसतीश जी, सिर्फ smiley से काम नहीं चलेगा ..कुछ कहिए भी पोस्ट के बारे में...आपके विचार मेरे लिए बहुमूल्य होंगे|
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