एक साँझ
देर तक बैठे रहे
हम साथ
बहुत कुछ कहती जाती मैं
और सुनते जाते तुम
अधरों पर जाने कैसा
मौन धरा था
तुम्हारे
फिर दूर किसी खाई से जैसे
आती आवाज़ सुनी थी....
"नहीं संभव मिलन हमारा"
लहरों की छाती पर
छितराए रंग
औचक ही डूब गए थे,
और मेरे मुख पर बिखरी
स्याही,
घुल साँझ के रंग में
कर गई उसे थी
सुरमई...
स्तब्ध खड़ी सोचती मैं
क्या मेरे ही दुःख से
हो गई प्रकृति
रंगहीन.....................
आह!!!!
ReplyDeleteदिल से निकली आह ने प्रकृति के रंग चुरा लिए..
अनु
जी हाँ अनु.... दिलखुश तो प्रकृति रंगीन... जब दिल में गम तो प्रकृति के रंग भी फीके लगाने लगते हैं|...ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया!
Deleteसुरमई...
ReplyDeleteस्तब्ध खड़ी सोचती मैं
क्या मेरे ही दुःख से
हो गई प्रकृति
रंगहीन.....................
..बहुत ख़ूबसूरत...ख़ासतौर पर आख़िरी की पंक्तियाँ....मेरा ब्लॉग पर आने और हौसलाअफज़ाई के लिए शुक़्रिया..!!
धन्यवाद संजय जी!
Deleteवाह दिल को छू कर दिल की गहराई में उतर गई आपकी ये रचना बेहतरीन बेहद उम्दा.
ReplyDeleteधन्यवाद अरुण!
Deleteलाजवाब....छोटे शब्दों में गहन पोस्ट।
ReplyDeleteधन्यवाद इमरान जी!
Deleteदूर किसी खाई से जैसे
ReplyDeleteआती आवाज़ सुनी थी....
"नहीं संभव मिलन हमारा"
लहरों की छाती पर
छितराए रंग
औचक ही डूब गए थे,..फिर कभी नहीं ऊपर आ सके
रश्मि जी, रंगों को उभरने के लिए पुनः प्रभात का इंतज़ार करना होता है...
Deleteसधन्यवाद