Thursday, 27 September 2012

राज़-ए-जिंदगी


राज़-ए-जिंदगी जानने को, उठाए ही थे कदम 
सफर शुरू भी न हुआ था, कि जिंदगी तमाम हुई|

हज़ार झंझटों में उलझी जिंदगी कुछ यूँ बेतरह 
कि पेंच-औ-ख़म निकालते जिंदगी कि शाम हुई |

बुलाती  थीं  रंगीनियाँ  और  शौक  रोकते  थे हमें,
दो का चार करते रहे हम, मनो जिंदगी हिसाब हुई|

शिकायतें इस कदर हमसे जिंदगी को और जिंदगी से हमें 
तंज देते एक दूसरे को , कि जिंदगी इल्ज़ाम हुई |

कोशिशें जारी थी कि किसी ढंग तो संभाल जाए
हर सूरत-ए-हाल में, बद से और बदहाल हुई|

ख्वाहिशें इतनी कि ताकते रहे फलक को हम
पैरों तले खिसकी ज़मीं तो असलियत बहाल हुई|

जिस्म से रूह तक उतर गई ये कैसी तिशनगी थी
बंद मुकद्दर के मयखाने, जिंदगी खाली जाम हुई|

फिर-फिर लौट आती  रहीं मेरी सदाएं मुझ तक,
बेअसर दुआएँ मेरी, घाटी में गूँजती आवाज़ हुईं|


23 comments:

  1. ख्वाहिशें इतनी कि ताकते रहे फलक को हम
    पैरों तले खिसकी ज़मीं तो असलियत बहाल हुई|... कितनी सही बात

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद रश्मि जी!

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  2. बहुत खूब शालिनी जी, गजब की प्रस्तुति,,,,

    ख्वाहिशें इतनी कि ताकते रहे फलक को हम
    पैरों तले खिसकी ज़मीं तो असलियत बहाल हुई,,,

    RECENT POST : गीत,

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    1. हार्दिक आभार धीरेन्द्र जी!

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  3. बढ़िया गज़ल..

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    1. निधि जी, हार्दिक धन्यवाद!

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  4. वाह क्या कहना लाजवाब बहुत सुन्दर लिखा है आपने

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद अरुण जी!

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  5. ख्वाहिशें इतनी कि ताकते रहे फलक को हम
    पैरों तले खिसकी ज़मीं तो असलियत बहाल हुई

    वाह ... बेहतरीन

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  6. शालिनी जी बहुत ही उम्दा ख्याल है....बहुत खुबसूरत.....कुछ पॉलिश की है ज़रा गौर फरमाएं (कृपया अन्यथा न लें ) -

    राज़-ए-जिंदगी जानने को उठाए ही थे कदम
    सफर शुरू भी न हुआ की जिंदगी तमाम हुई

    हज़ार झंझटों में उलझी जिंदगी कुछ यूँ बेतरह
    कि पेंच-ओ-ख़म निकालते जिंदगी कि शाम हुई,

    बुलाती थीं रंगीनियाँ और फ़र्ज़ रोकते थे हमें,
    इसी दो -चार करते रहे हम, जिंदगी जैसे हिसाब हुई,

    शिकायतें इस कदर हमसे जिंदगी को उसे हमसे
    तंज देते रहे एक दूसरे को जिंदगी जैसे इल्ज़ाम हुई,

    कोशिशें जारी थी कि किसी ढंग तो संभल जाए
    हर सूरत-ए-हाल में जिंदगी और भी बदहाल हुई,

    ख्वाहिशें इतनी कि ताकते रहे फलक को हम
    पैरों तले खिसकी ज़मीं तो असलियत बहाल हुई,

    जिस्म से रूह तक उतर गई ये कैसी तिशनगी थी
    बंद हुए मयखाने जिंदगी जैसे खाली जाम हुई,

    फिर-फिर लौट आती रहीं मेरी सदाएं मुझ तक,
    बेअसर दुआएँ मेरी घाटी में गूँजती आवाज़ हुईं,

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    1. इमरान जी ..अन्यथा लेने की तो बात ही नहीं है.... आपके सुझाव सदा ही मेरे लिए उपयोगी सिद्ध होंगे...बहुत बहुत धन्यवाद!

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  7. Replies
    1. अग्निमन जी.... धन्यवाद!
      पर यह ZNUBHUT.... समझ नहीं आया..

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  8. जिस्म से रूह तक उतर गई ये कैसी तिशनगी थी
    बंद मुकद्दर के मयखाने, जिंदगी खाली जाम हुई|
    बुलाती थीं रंगीनियाँ और शौक रोकते थे हमें,
    दो का चार करते रहे हम, मनो जिंदगी हिसाब हुई|

    शालिनी जी आपकी ये गजल बहुत ही खूबसूरत लगी ...यूँ तो नुक्ता चीनी करना अनावश्यक तौर पर अपनी योग्यता को प्रदर्शित करना होता है | और खास तौर पर ब्लॉग पर नुक्स लिखना तहजीब के खिलाफ है अगर किसी को कोई कमी गजल में लगती है तो वह इ मेल करके ही अपनी राय जाहिर करे तो अच्छा लगता है | फिल हाल आपकी गजल के भाव बेमिशाल हैं आपका प्रयास बेहद सार्थक है साथ ही अब ऐसा लगता है की अब अप की लेखनी परिपक्वता की और बढ़ रही है ........इस सुन्दर गजल के लिए आभार के साथ साथ बधाई भी भेज रहा हूँ |

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    Replies
    1. नवीन जी,
      आपकी टिपण्णी के लिए हार्दिक धन्यवाद..जैसा कि आपने कहा है कि लेखन में कुछ सुधार नज़र आया है.. यह आप जैसे परिपक्व लेखकों के सुझावों से ही संभव हुआ है... अतः आप सबके सुझाव वा टिप्पणीयाँ मुझे हृदय से मान्य हैं..आप में से किसी की, कोई भी टिपण्णी मुझे नुक्स निकालना नहीं बल्कि एक सुझाव व मार्गदर्शन के समान लगाती है.
      साभार

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  9. ख्वाहिशें इतनी कि ताकते रहे फलक को हम
    पैरों तले खिसकी ज़मीं तो असलियत बहाल हुई|
    और
    फिर-फिर लौट आती रहीं मेरी सदाएं मुझ तक,
    बेअसर दुआएँ मेरी, घाटी में गूँजती आवाज़ हुईं|

    ...बेबसी की इन्तहा की एक बेहतरीन तस्वीर

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  10. बहुत बहुत धन्यवाद सरस जी!

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  11. Replies
    1. धन्यवाद जय कृष्ण जी!

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  12. बहुत सुंदर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट 'बहती गंगा" पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।

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  13. शालिनी जी अति असुंदर अहसास आपके ज़हीन शब्दों में ...मेरी जानिब से ढेरों दाद ..कबूल फरमाइयेगा.....

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