उस दिन
साथ चलते-चलते
छू गया था जब
हाथ तुम्हारा
मेरे हाथ से
कपोलों पर मेरे
बिखर गया
सिन्दूर
प्राची ने समेट जिसे
अपनी माँग में सजाया
और साथ-साथ मेरे प्रकृति भी
हो उठी थी
अरुणिम
हृदय हर्षाया
तन की पुलक से
हरियाई थी दूब
भावों का अतिरेक
जल कण बन
नयन से टपका
और ओस बन ठहर गया
तृण नोक पर
स्पंदित हृदयतंत्री के तार
झंकृत हो उठा
संसार
कुछ न कह कर
सब कुछ कहते
लरजते होंठ खुले
और
मूक अधरों का
मुखरित मौन
कलरव बन फ़ैल गया
चहुँ ओर
कितने ही भाव
अनगिनत रंगों के
उपजे उस पल
और छिटक गए
फूल, तितली, इन्द्रधनुष बन
रंगों की अद्भुत होली
देख सोचती
मुग्धा मैं
क्या मैंने ही इस प्रकृति को
कर डाला
रंगीन ......
एक और प्रेम सरोवर में लिप्त, बेहतरीन रचना.
ReplyDeleteमनमोहक ये दिलकश रचना मन में उतरी जाए
गद - गद हुआ है ह्रदय, खुशबू कुछ ऐसी आए.
हार्दिक आभार अरुण जी!
Deleteबहुत ही बढ़िया मैम!
ReplyDeleteसादर
धन्यवाद यशवंत जी!
Deleteबहुत खूब .. प्राकृति या प्रेम का भाव .. कुछ तो है जो रंगीन कर गया ...
ReplyDeleteप्रेम के रंग प्रकृति पर छिटक कर उसे और रंगीन कर देते हैं..... धन्यवाद दिगंबर जी!
Deleteबहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteबेहद रूमानी एहसास.....
अनु
धन्यवाद अनु जी!
Deleteकोमाल और प्यारे एहसास से लबरेज रचना ...
ReplyDeleteधन्यवाद संगीता जी!
Deleteस्पंदित हृदयतंत्री के तार
ReplyDeleteझंकृत हो उठा
संसार
कुछ न कह कर
सब कुछ कहते
लरजते होंठ खुले
और
मूक अधरों का
मुखरित मौन
कलरव बन फ़ैल गया
....
bahut khubsurat ban pade ye shabd...
bahut behtareen...
abhaar..
धन्यवाद मुकेश जी!
Deleteवाह ... बहुत ही बढिया।
ReplyDeleteधन्यवाद सदा जी!
Deleteवाह....बहुत खूब।
ReplyDeleteइमरान जी ...बहुत बहुत शुक्रिया!
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