वो तुम ही तो थे न.....
आज प्रातः ही
वातायन से भेजी थी तुमने
इक स्वर्णिम किरण
प्रेम- पगे संदेसे के साथ
हौले से छूकर जो
जगा गई थी मुझे
उनींदी आखों को मलते हुए देखा तो
हाथों में थामे तुम खड़े थे
अरुणिम पारिजात
सद्य प्रस्फुटित
किरण-कोंपलों से
नहा रहा था जग जिसमें
वो अरुणाभ बखेरते
कर रहे थे मेरी ही प्रतीक्षा
वो तुम्हीं तो थे न ......
दूर कहीं मयूर की केकी से
अचानक चौंका दिया था तुमने
तन्द्रा तोड़ देखा तो
सघन हरितिमा में
उस नील-नवल तन में
वो तुम्हीं तो थे न ......
प्रकृति के कण कण में
तुम हो रहे थे भासित
पक्षियों के कलरव में
भ्रमर की गुँजार में
हवा की सरसराहट में
पत्तों की खड़खड़ाहट में
सद्य स्नात तृणों की
भीगी सी पुलक में
वो मृदु स्नेहिल स्पर्श
तुम्हारा ही था न ....
अमलतास के पीताभ गुच्छों में
चलते रहे तुम मेरे साथ-साथ
फैलाकर अपनी शाख- बाहें
कर रहे थे मेरा आह्वान
पर मैं तो मगन थी अपने में ही
दिनभर के जोड़-घटा,हिसाब-किताब में
पगली मैं , जान भी न पायी
अमूल्य पूंजी लुटा बैठी थी
न देख पायी
तुम्हारा मुस्कुराना, खिलखिलाना
न ही सुन पाई
वो तुम्हारा मधुर गुनगुनाना
हाथों से कैसे फिसल गया
तुम्हारा वो सलोना रूप
अब सोचती बारम्बार
श्याम
हाँ, वो तुम ही थे ....
चित्र : साभार गूगल
आज प्रातः ही
वातायन से भेजी थी तुमने
इक स्वर्णिम किरण
प्रेम- पगे संदेसे के साथ
हौले से छूकर जो
जगा गई थी मुझे
उनींदी आखों को मलते हुए देखा तो
हाथों में थामे तुम खड़े थे
अरुणिम पारिजात
सद्य प्रस्फुटित
किरण-कोंपलों से
नहा रहा था जग जिसमें
वो अरुणाभ बखेरते
कर रहे थे मेरी ही प्रतीक्षा
वो तुम्हीं तो थे न ......
दूर कहीं मयूर की केकी से
अचानक चौंका दिया था तुमने
तन्द्रा तोड़ देखा तो
सघन हरितिमा में
उस नील-नवल तन में
वो तुम्हीं तो थे न ......
प्रकृति के कण कण में
तुम हो रहे थे भासित
पक्षियों के कलरव में
भ्रमर की गुँजार में
हवा की सरसराहट में
पत्तों की खड़खड़ाहट में
सद्य स्नात तृणों की
भीगी सी पुलक में
वो मृदु स्नेहिल स्पर्श
तुम्हारा ही था न ....
अमलतास के पीताभ गुच्छों में
चलते रहे तुम मेरे साथ-साथ
फैलाकर अपनी शाख- बाहें
कर रहे थे मेरा आह्वान
पर मैं तो मगन थी अपने में ही
दिनभर के जोड़-घटा,हिसाब-किताब में
पगली मैं , जान भी न पायी
अमूल्य पूंजी लुटा बैठी थी
न देख पायी
तुम्हारा मुस्कुराना, खिलखिलाना
न ही सुन पाई
वो तुम्हारा मधुर गुनगुनाना
हाथों से कैसे फिसल गया
तुम्हारा वो सलोना रूप
अब सोचती बारम्बार
श्याम
हाँ, वो तुम ही थे ....
चित्र : साभार गूगल
अमलतास के पीताभ गुच्छों में
ReplyDeleteचलते रहे तुम मेरे साथ-साथ
फैलाकर अपनी शाख- बाहें
कर रहे थे मेरा आह्वान ... अदभुत चित्रण
प्रयास की सराहना करने के लिए हार्दिक आभार, रश्मि जी!
Deleteबहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति ! बह गए हम भी आपके भावों में ! सच व्यस्तताओं के वीच हम कितना कुछ खो देते हैं!
ReplyDeleteसुशीला जी, आपकी सराहना सदैव ही प्रेरणास्पद होती है, हार्दिक आभार!
Deleteगहन भावों की कोमल अभिव्यक्ति
ReplyDeleteछायावाद की झलक लिये हुए
आभार
रचना पर ध्यान देने के लिए आभार, अंजनी कुमार जी!
Deleteबहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बहुत सुंदर कविता । मेरे नए पोस्ट "कबीर" पर आपका स्वागत है । धन्यवाद।
ReplyDeleteधन्यवाद सर!
Deleteप्रकृति के कण कण में
ReplyDeleteतुम हो रहे थे भासित
पक्षियों के कलरव में
भ्रमर की गुँजार में
प्रकृति में चिदानंद का अद्भुत स्वरुप का वर्णन ..भाव और अनुभूति का सुन्दर संयोजन ....
सराहना के लिए धन्यवाद, रमाकांत जी !
Deleteधन्यवाद अमरेन्द्र जी!
ReplyDeleteप्रेम की ठंडी बयार बह रही हो जैसे ...छायावादी भोर के रहस्य कों खोलती ...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद, दिगंबर जी!
Deleteसहज भावों को अनुप्राणित करती पोषित करती सी प्रस्तुति पढ़ते पढ़ते याद आ गईं ये पंक्तियाँ कबीर की -
ReplyDeleteलाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल ,
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल .
और यहाँ भी दखल देंवें -
ram ram bhai
सोमवार, 28 मई 2012
क्रोनिक फटीग सिंड्रोम का नतीजा है ये ब्रेन फोगीनेस
http://veerubhai1947.blogspot.in/
हार्दिक आभार, वीरूभाई जी!
Deleteअमलतास के पीताभ गुच्छों में
ReplyDeleteचलते रहे तुम मेरे साथ-साथ
फैलाकर अपनी शाख- बाहें
कर रहे थे मेरा आह्वान
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,,,,,
RECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, ऐ हवा महक ले आ,,,,,
शुक्रिया धीरेन्द्र जी!
Deletesundar abhivyakti...
ReplyDeleteधन्यवाद अंकुर जी!
Deleteकोमल भाव युक्त बहुत ही बेहतरीन रचना...
ReplyDeleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति....
धन्यवाद रीना जी!
Deleteअति सुन्दर।
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