बहुत हुआ
अब छोड़ भी दे, मन
तृष्णा की डोर से बंधी
आस की मृगी को
मुक्त कर बंधन से
मृगमरीचिका में भटकती
इस व्याकुल उलझन को
अब छोड़ भी दे, मन
कहाँ, कितना और कब तक
यूँही बेमकसद भटकेगा
नागफनी सी उगती
कामनाओं के जंगल में
लहूलुहान हो
कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
बेबसी के पिंजरे को
अब खोल भी दे मन .
अनंत विस्तार है
अथाह गहराई
न कोई ओर, न कोई छोर
धुंधलके में फिरते सायों सी
पल पल बनता मिटता वजूद
कब तक दौड़ेगा इन छलावों के पीछे
झूठ-मूठ के भ्रमों को
अब तोड़ भी दे मन
अब छोड़ भी दे, मन
तृष्णा की डोर से बंधी
आस की मृगी को
मुक्त कर बंधन से
मृगमरीचिका में भटकती
इस व्याकुल उलझन को
अब छोड़ भी दे, मन
कहाँ, कितना और कब तक
यूँही बेमकसद भटकेगा
नागफनी सी उगती
कामनाओं के जंगल में
लहूलुहान हो
कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
बेबसी के पिंजरे को
अब खोल भी दे मन .
अनंत विस्तार है
अथाह गहराई
न कोई ओर, न कोई छोर
धुंधलके में फिरते सायों सी
पल पल बनता मिटता वजूद
कब तक दौड़ेगा इन छलावों के पीछे
झूठ-मूठ के भ्रमों को
अब तोड़ भी दे मन
'बेबसी के पिंजरे को
ReplyDeleteअब खोल भी दे मन .'
सुन्दर बात कही मन से...
मान ले मन तो क्या बात हो!
बस ये मन ही तो बस में नहीं आता...... रचना पर ध्यान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, अनुपमा जी!
DeleteSach hai ... Jo Bhi hai apne andar hi hai ... Chalave bas bhatkav ko aur badaa dete hai .. Gahri rachna ...
ReplyDeleteऔर इन्ही छलावों के बीच भटकते बीत जाता है जीवन....... धन्यवाद दिगंबर जी,
Deleteकहाँ-कहाँ सर पटकेगा
ReplyDeleteबेबसी के पिंजरे को
अब खोल भी दे मन .... गहरी सोच
सादर
पुनश्चः........
शनिवार 26/05/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
यशोदा जी , हलचल में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार!
Deleteबहुत खूब मैम!
ReplyDeleteसादर
धन्यवाद यशवंत जी!
Deleteकहाँ, कितना और कब तक
ReplyDeleteयूँही बेमकसद भटकेगा
नागफनी सी उगती
कामनाओं के जंगल में
लहूलुहान हो
कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
बेबसी के पिंजरे को
अब खोल भी दे मन ... थोड़ा जी ले ओ मन
धन्यवाद रश्मि जी!
Deleteअनंत विस्तार है
ReplyDeleteअथाह गहराई
न कोई ओर, न कोई छोर
धुंधलके में फिरते सायों सी
पल पल बनता मिटता वजूद
कब तक दौड़ेगा इन छलावों के पीछे
झूठ-मूठ के भ्रमों को
अब तोड़ भी दे मन
कभी ऐसा भी सोच ही लेता है मन ... बहुत अच्छा लिखा है आपने
धन्यवाद सदा जी !
Deleteबहुत ही सुन्दर कोमल से भाव
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुती....
धन्यवाद रीना जी!
Deleteकहाँ, कितना और कब तक
ReplyDeleteयूँही बेमकसद भटकेगा
नागफनी सी उगती
कामनाओं के जंगल में
लहूलुहान हो
कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
बेबसी के पिंजरे को
अब खोल भी दे मन .
वाह ,,,, बहुत अच्छी प्रस्तुति,,,,
RECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....
धन्यवाद धीरेन्द्र जी!
Deleteकहाँ, कितना और कब तक
ReplyDeleteयूँही बेमकसद भटकेगा
नागफनी सी उगती
कामनाओं के जंगल में
लहूलुहान हो
कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
बेबसी के पिंजरे को
अब खोल भी दे मन .
निः शब्द हूँ|ऐसा लग रहा है मेरी भावनाओं को उकेर कर रख दिया हो...बहुत सुन्दर....
स्वाति जी, ऐसे ही पता नहीं कब और कैसे मन कि डोर किसी से बांध जाती है , जब कोई हमख्याल मिल जाए तो उसके शब्द अपने से लगाने लगते हैं.... प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद!
Deleteमन को समझना कहां आसान है.. कब किधर को जाएगा, कुछ पता नहीं। उसे बंधन में रखना आसान नहीं
ReplyDeleteमैं आपसे बिलकुल सहमत हूँ दीपिका जी!
Deleteभ्रम टूट ही जाये तो अच्छा ...बेहतरीन रचना
ReplyDeleteकहाँ, कितना और कब तक
ReplyDeleteयूँही बेमकसद भटकेगा
नागफनी सी उगती
कामनाओं के जंगल में
लहूलुहान हो
कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
बेबसी के पिंजरे को
अब खोल भी दे मन .
.... व्याकुल मनको बस धीर ही तो नहीं मिलता .......बहुत सुन्दर शालिनीजी
बहुत सुन्दर लिखा ...कब तक छलावे के पीछे भागता रहेगा मन ....जब ये बात मन समझ ले तो जीने का मजा कुछ और बढ़ जाए
ReplyDeleteबस ये मन ही है सब कुछ समझाने पर भी अपने ही भ्रमों में भटकते रहना चाहता है ...... बहुत बहुत धन्यवाद राजेश जी!
Deleteकहाँ, कितना और कब तक
ReplyDeleteयूँही बेमकसद भटकेगा
नागफनी सी उगती
कामनाओं के जंगल में
लहूलुहान हो
कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
वाह.....बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ .....शानदार ।
शुक्रिया इमरान जी!
Deleteबहुत खूब....खुद से पहचान करवाती रचना ....!
ReplyDeleteमन की परिभाषा को आपने बेहद खूबसूरती से प्रस्तुत किया है! शालिनी जी
ReplyDeleteधन्यवाद संजय ....... बस प्रयास किया है नहीं तो मन को समझना ही मुश्किल है ...उसकी परिभाषा और भाषा तो इश्वर ही जाने.
Deleteभ्रम बना रहे .....
ReplyDeleteसतीश जी, ये भ्रम बना ही रहता है...हज़ार समझाने पर भी ये मन अपने भटकाव के लिए नए रस्ते और नयी वजह ढूंढ ही लेता है.
Deleteव्यस्त रहे मन , यही कामना है !
Deleteहलचल में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार, संगीता जी!
ReplyDeleteइस व्याकुल उलझन को
ReplyDeleteअब छोड़ भी दे, मन ..... bahut sundar vichaar, par man ki uljhano ki gaathe kaha khul paati hain, kaha chodi jaati hain....bahut hi achi rachna hai
बहुत बहुत धन्यवाद!
Deleteनागफनी सी उगती
ReplyDeleteकामनाओं के जंगल में
लहूलुहान हो
कहाँ-कहाँ सर पटकेगा
बेबसी के पिंजरे को
अब खोल भी दे मन .
सुंदर सृजन....
सादर बधाई।
धन्यवाद, संजय मिश्र जी.
Deleteबहुत ही सुंदर भाव और दिल को छूती अभिव्यक्ति ! बधाई शालिनी जी !
ReplyDeleteधन्यवाद सुशीला जी!
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