Wednesday, 2 May 2012

चेतना के बंध

न जाने कितने बंध
लगाती है चेतना

तुम ये करना , वो न करना
तुम ये कहना , वो मत कहना
गर वो कहना तो यूँ कहना
हर बात का मतलब पल पल में
हमें समझाती है चेतना

इस बात पे लोग खफा होंगे
उस बात जाने क्या बोलेंगे
देखो, कहीं कोई हँसी न बनाये
न रुसवा तुम्हें  कोई कर जाये
बात बात पे देखो तो कितना
डरा हमें धमकती है चेतना

दुनिया की कितनी रस्में है
कितने नाते और कसमें हैं
वादों की लक्ष्मण रेखा है
बस इनमें बंधकर ही रहना
हर कदम कदम पे देखो कितने
जाल बिछाती है चेतना

दिल की क्या सुनना कि ये दिल तो ,
 कुछ पागल कुछ आवारा है .
हर बदनाम गली औ कूंचे से
इसका तो आना जाना है
बस जकड़े दिल को रखने को
पहरे लाख बिठाती चेतना





15 comments:

  1. तुम ये करना , वो न करना
    तुम ये कहना , वो मत कहना
    गर वो कहना तो यूँ कहना
    हर बात का मतलब पल पल में
    हमें समझाती है चेतना... पूरी ज़िन्दगी का उपक्रम !!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार रश्मि जी !

      Delete
  2. सच चेतना हर समय चेताती रहती है कि ये करो और यह मत करो ... बहुत सुंदर प्रस्तुति

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद संगीता जी !

      Delete
  3. दिल की क्या सुनना कि ये दिल तो ,
    कुछ पागल कुछ आवारा है .
    हर बदनाम गली औ कूंचे से
    इसका तो आना जाना है
    बस जकड़े दिल को रखने को
    पहरे लाख बिठाती चेतना ,....

    बहुत बढ़िया प्रस्तुति, सुंदर रचना,.....शालिनी जी

    MY RECENT POST.....काव्यान्जलि.....:ऐसे रात गुजारी हमने.....

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद धीरेंदर जी , आपके ब्लॉग कव्यन्जिली पर आपकी नयी रचना पढ़ी , बेहद ख़ूबसूरती से लिखी है आपने ...... आपकी followers कि सूचि में अपना नाम दर्ज किया है .....

      Delete
  4. वाह बेहतरीन यहाँ चेतना की जगह मन होना चाहिए था शायद क्यूंकि चेतना अगर जागृत है तो वो तो स्थिर है ये तो मन है जो चंचल है जो कभी यहाँ तो कभी वहाँ अपनी चेतना तक तो हमे ये मन ही पहुंचने नहीं देता ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. पहले तो .... रचना पर ध्यान देने के लिए हार्दिक आभार इमरान जी, आपका सुझाव पढ़ कर अच्छा लगा .... पर पता नहीं मुझे ऐसा लगता है कि ये चेतना ही तो है जो हमें हमारे मन कि नहीं करने देती , खैर..... अपना अपना नजरिया है !

      Delete
    2. शुक्रिया जो आपने मेरी बात का मर्म समझा......हम सारी जिंदगी मन की तो करते रहते हैं और फिर अतीत और भविष्य के बीच झूलते रहते हैं चेतना हमे सही समय पर चेताती है की जो तुम कर रहे हो वो भला है या बुरा पर हम उसकी आवाज़ दबाते जाते हैं फिर एक दिन वो सो जाती है और फिर हमारी बागडोर सिर्फ मन के हाथ रह जाती है जो सारी जिंदगी हमे एक न ख़त्म होने वाली दौड़ में भगाता रहता है। हम जो हैं, जहाँ है, जैसे हैं.....वो हमे खुश नहीं होने देता.....वो कहता है कुछ और होना है, कहीं और होना है और हम हमेशा उसके पीछे चलते जाते है सुख की तलाश में जो अंत में दुःख में ही परिवर्तित हो जाता है ।

      Delete
    3. आपके विचारों से मैं पूर्णतया सहमत हूँ, इमरान जी!

      Delete
  5. बहुत ही बढ़िया मैम!

    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद यशवंत जी!

      Delete
  6. यही चेतना तो हमें इंसान होने का गौरव भी देती है ......सुन्दर प्रस्तुति शालिनीजी

    ReplyDelete
  7. इस चेतना का बंधन तोड़ के सब कुछ खुली हवा ले परों पे रख दो .. फिर उनकी परवाज का आनंद लो ...

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मेरे लिए अनमोल है.अगर आपको ये पोस्ट पसंद आई ,तो अपनी कीमती राय कमेन्ट बॉक्स में जरुर दें.आपके मशवरों से मुझे बेहतर से बेहतर लिखने का हौंसला मिलता है.

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...
Blogger Tips And Tricks|Latest Tips For Bloggers Free Backlinks