Sunday, 18 March 2018

किरदार बदलती आँखें

निकल आते हैं हाथ
आँखों के...
सिर्फ देखती ही नहीं
देह टटोलती हैं
नाखून बन
जिस्म खरोंचती हैं आँखें।
लिजलिजे कीड़े-सी
भर देती हैं आत्मा में
जुगुप्सा
नहीं रहतीं सीमित आँखें
सिर्फ एक नज़र तक
भाले, बरछी, तीर बन
बींध देती हैं
उतर जाती हैं
कपड़ों के भीतर छिपी देह के
उन बेहद निजी
गलियारों में
घूमते-फिरते पाँव बन जाती हैं
आँखें।
बेहूदगी से ठहाके लगती
फूहड़ से तंज कसती हैं
बेहया ज़ुबान बन जाती हैं आँखें।
इंसानियत छोड़
 जाने कैसी वहशत पर उतर आती हैं
औरत जात को देख
किरदार बदल लेती हैं
कुछ मर्दानी आँखें ... 

अहं

अहं
बहुत सख़्त होते हैं ये अहं
जब भी आपस में टकराते हैं
लोग भले ही टूट जाएँ
पर अहं क़ायम रह जाते हैं।
ज़िद से पलते
पोषण पाते
बहुत बड़े होते जाते हैं ये अहं
हर संबंध , हर नाते रिश्ते से
ऊपर निकल जाते हैं अहं

Saturday, 17 March 2018

रीती गागर

बूँद -बूँद रिसते,
जब रीत जाता है मन।
मन की खाली गागर लिए,
निकल पड़ती हूँ फिर,
भरने को उसमें
अनचीन्हे दर्द
~~~~~~~~~~
आँसुओं से सीले थे ख्वाब, सुलगते रहे न जल पाए।
बेड़ियाँ पाँव मेरे, तेरे पाँवों पंख, चाह के भी संग न चल पाए।
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

चलो अब बराबर, हिसाब किए लेते हैं।

चलो अब बराबर, हिसाब किए लेते हैं।
कुछ तुम रख लो , कुछ हम रख लेते हैं।
हँसी - मुस्कुराहटों के पल तुम ले जाओ,
आँसू का हिसाब हम किए लेते हैं।
वो इंतेज़ार के पल, वो न मिल पाने की तड़प
मिल्कियत है मेरी, सहेज रखूँगी ता उम्र,
वस्ल की रातों के वो महके हुए लम्हें,
अमानत हैं तुम्हारी,  लौटाए तुम्हें देते हैं।
शिकवे शिकायतों की कुछ बोझिल सी यादें,
करवटों, बेचैनियों, अश्कों में डूबी रातें
सौंप दो मुझे, दिल से उतार बोझ इनका।
रूठने- मनाने, हँसने- गुनगुनाने के
पंखों से भी नाजुक नरम वो पल
लीजिए हवाले आपके कर देते हैं ...
चलो अब बराबर हिसाब कर लेते हैं।
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

Friday, 2 February 2018

समर्पण

तुम्हें पाना असंभव है शायद
या कुछ कमी साधना में है मेरी।
शायद पूर्ण नहीं समर्पण मेरा
आधी-अधूरी है शायद
आराधना मेरी।
क्यों बोल मेरे  नहीं  जाते तुम तक
क्यों शून्य में लय हो जाती
पुकार है मेरी?
क्यों अर्पण मेरा अस्वीकृत होता,
क्यों तिरस्कृत हो जाती
भेंट है मेरी?
तुम ही कहो अब, मेरे देवता !
क्या प्रिय तुम्हें जो
कर पाऊँ मैं?
किस विधि, किस पूजा,
किस उपक्रम से
प्रसन्न प्रिय कर पाऊँ तुम्हें ?
क्या राधा का मैं वेश धरूँ
या मीरा सी जोगन बन जाऊँ मैं?
बन दीपक मैं प्रतिपल जलूँ या
बन शलभ क्षण में जल जाऊँ मैं।
किस राह धरूँ पग, जिस पर चलकर,
हे प्रिय! मैं पा जाऊँ तुम्हें
~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

Saturday, 27 January 2018

शिव ... कैसे हो पाता है संभव तुमसे

शिव
कैसे हो पाता है संभव तुमसे
एक साथ होना
संहारक और संरक्षक
वैरागी और सांसारिक
प्रेम में लिप्त होते हुए निर्लिप्त
सब में होते हुए भी निस्पृह
सम्पूर्ण होते हुए भी असम्पृक्त
जीवन का अमृत, मृत्यु गरल
धारण करना एक साथ 
कैसे हो पाता है संभव तुमसे
शिव .....

Tuesday, 23 January 2018

तुम ही चक्र, तुम ही धुरी। 
तुम ही पथ, तुम ही गति।
मेरे पथ का आदि तुम,
तुम ही हो हर पथ की इति।
अपूर्णता का तुमसे भान,
संपूर्णता का तुम निधान।
मेरा हरेक विधान तुमसे,
तुम ही हो हर एक विधि।
क्यों नहीं उलटता क्रम यह,
क्यों नहीं पलटती यह नियति।
कभी तुम मेरी करो परिक्रमा 
कभी बन रहूँ मैं तुम्हारी धुरी।
~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

अभिमन्यु

अभिमन्यु
बनता जा रहा
आज का युवा
अपने ही चारों ओर
अपने ही द्वारा रचित
चक्रव्यूह में
अपने अंतर्द्वंद्वों को झेलता,
खुद से लड़ता,
स्वयं हथियार बन वार करता
स्वयं ढाल बन बचता।
स्वयं छिन्न-भिन्न हो, निशस्त्र होता।
स्वयं रथचक्र बन
स्वरक्षा हेतु घूमता ,
बनता जाता
क्या नियति के हाथों
इस बार भी धराशायी होगा?
या रण विजेता बन
लौटेगा सदर्प?
अभिमन्यु !!
~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

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