Sunday, 18 March 2018

किरदार बदलती आँखें

निकल आते हैं हाथ
आँखों के...
सिर्फ देखती ही नहीं
देह टटोलती हैं
नाखून बन
जिस्म खरोंचती हैं आँखें।
लिजलिजे कीड़े-सी
भर देती हैं आत्मा में
जुगुप्सा
नहीं रहतीं सीमित आँखें
सिर्फ एक नज़र तक
भाले, बरछी, तीर बन
बींध देती हैं
उतर जाती हैं
कपड़ों के भीतर छिपी देह के
उन बेहद निजी
गलियारों में
घूमते-फिरते पाँव बन जाती हैं
आँखें।
बेहूदगी से ठहाके लगती
फूहड़ से तंज कसती हैं
बेहया ज़ुबान बन जाती हैं आँखें।
इंसानियत छोड़
 जाने कैसी वहशत पर उतर आती हैं
औरत जात को देख
किरदार बदल लेती हैं
कुछ मर्दानी आँखें ... 

2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, किस मिट्टी से खुद को गढ़ लिया है ? “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. धन्यवाद ब्लॉग बुलेटिन

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