संकोच कर जाते हैं शब्द
हो नहीं पाते मुखर,
इस क़दर
कि अनावृत कर डालें सभी
आदिम, मूलभूत कामनाएँ-क्रियाएँ।
हाँ, शब्दों से सजकर
स्वाभाविकता खोकर
खो देती हैं सौंदर्य
कुछ भावनाएँ।
तो क्या हुआ जो
नहीं करते अतिक्रमण
उच्छृंखल नहीं होते
क्या पिछड़े हुए हैं
मेरे शब्द ??
~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी
हो नहीं पाते मुखर,
इस क़दर
कि अनावृत कर डालें सभी
आदिम, मूलभूत कामनाएँ-क्रियाएँ।
हाँ, शब्दों से सजकर
स्वाभाविकता खोकर
खो देती हैं सौंदर्य
कुछ भावनाएँ।
तो क्या हुआ जो
नहीं करते अतिक्रमण
उच्छृंखल नहीं होते
क्या पिछड़े हुए हैं
मेरे शब्द ??
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शालिनी रस्तौगी
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