Sunday 31 March 2013

लम्हा लम्हा



लम्हा लम्हा


रात रिसती रही 




आँखों की कोर से 




न नींद ही आई



न ख्वाब कोई 




एक-एक सितारा 




टूट कर गिरता रहा 




ज़मीन पे 




भोर होते न होते 




न तारे बचे आसमां के पास 




न नमी 




आँखों में 




रह गए तो बस 




सूख कर चटके हुए



कुछ ख्वाव 




समेटते रहे टुकड़े जिनके 




तमाम दिन 




लम्हा लम्हा

10 comments:

  1. लाजवाब पंक्तियाँ सुन्दर भाव हार्दिक बधाई आदरेया

    ReplyDelete
  2. Replies
    1. धन्यवाद धीरेन्द्र जी !

      Delete
  3. मानवीय संवेदना को व्यक्त करती कविता
    सुंदर रचना
    बधाई


    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों ख़ुशी होगी

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद ज्योति खरे जी

      Delete
  4. बहुत ही सार्थक शब्द,बेहतरीन प्रस्तुति.

    ReplyDelete
  5. दिलचस्प। क्या ही खूब अशआर हैं , एक हकीकत की सी कैफियत बयां कर रहे हैं।

    ReplyDelete
  6. गहरे भाव ... सुबह की रौशनी के आगोश में बचे रहे तो सूखे ख्वाब ...

    ReplyDelete
  7. क्या बात....बहुत खुबसूरत नज़्म ।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मेरे लिए अनमोल है.अगर आपको ये पोस्ट पसंद आई ,तो अपनी कीमती राय कमेन्ट बॉक्स में जरुर दें.आपके मशवरों से मुझे बेहतर से बेहतर लिखने का हौंसला मिलता है.

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...
Blogger Tips And Tricks|Latest Tips For Bloggers Free Backlinks