नुमाइश है ये दुनिया, क्या यहाँ नुमाया नहीं होता .
इंसानों की बस्ती में इंसानियत का नज़ारा नहीं होता
खूबसूरती का नकाब पहने घूमे है यहाँ वहशत,
सूरत से किसी की सीरत का अंदाज़ा नहीं होता .
न जाने कितने स्वांग रचाए फिरते हैं शराफत का
तस्बीह फेरने वाला हर, पीर औ इमाम नहीं होता .
ईमान औ इल्म की यहाँ सभी दुकान सजाये बैठे हैं,
कौन समझाए कि बाजार में हर शख्स खरीदार नहीं होता.
सफ़ेद लिबासों में स्याह दिल औ ईमान छिपा रखा है
सफेदी पे स्याह दाग कभी पोशीदा नहीं होता .
वाह वाह सुन्दर रचना | बधाई
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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धन्यवाद तुषार .... और आपके ब्लॉग पर जाना हमेशा ही होता है
Deleteबहुत ही सुन्दर ग़ज़ल,सादर आभार.
ReplyDeletethanx rajendr ji!
Deleteबहुत खूब ...!!!
ReplyDeleteबहुत बहुत खुबसूरत और शानदार दूसरा और तीसरा शेर तो लाजवाब ।
ReplyDeleteइसको कुछ यूँ लिखें -
पीर-ओ-इमाम (यहाँ 'ओ' को और के सन्दर्भ में लेंगे )
सूरत से किसी की सीरत का अंदाजा नही होता,,,,
ReplyDeleteवाह वाह !!! क्या बात कही,,,बहुत सुंदर गजल,,,बधाई शालिनी जी,,,
Recent post: रंग,
सच है सूरत से सीरत का अंदाजा नहीं होता ...
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब ओर उम्दा बात इस शेर के माध्यम से कही है आपने .... अच्छी गज़ल ...
khubsurat rachna
ReplyDeleteउम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteधन्यवाद प्रदीप जी..मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए!
ReplyDeletekhoobshurat ahshas
ReplyDeleteकहवत ही है -ढोल में पोल!
ReplyDeletesunder abhivyakti
ReplyDeleteshubhkamnayen
लाजवाब!
ReplyDeleteसादर
क्या खूब खा है चंद अल्फाजों में आज के तमाशे को स्थितियों के विडंबन को .बेहतरीन रचना .
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