लम्हा लम्हा
लम्हा लम्हा
रात रिसती रही
आँखों की कोर से
न नींद ही आई
न ख्वाब कोई
एक-एक सितारा
टूट कर गिरता रहा
ज़मीन पे
भोर होते न होते
न तारे बचे आसमां के पास
न नमी
आँखों में
रह गए तो बस
सूख कर चटके हुए
कुछ ख्वाव
समेटते रहे टुकड़े जिनके
तमाम दिन
लम्हा लम्हा
लाजवाब पंक्तियाँ सुन्दर भाव हार्दिक बधाई आदरेया
ReplyDeletedhanyvaad arun ...
Deleteबहुत सुंदर भावों की अभिव्यक्ति,,,,
ReplyDeleteRECENT POST: होली की हुडदंग ( भाग -२ )
धन्यवाद धीरेन्द्र जी !
Deleteमानवीय संवेदना को व्यक्त करती कविता
ReplyDeleteसुंदर रचना
बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों ख़ुशी होगी
धन्यवाद ज्योति खरे जी
Deleteबहुत ही सार्थक शब्द,बेहतरीन प्रस्तुति.
ReplyDeleteदिलचस्प। क्या ही खूब अशआर हैं , एक हकीकत की सी कैफियत बयां कर रहे हैं।
ReplyDeleteगहरे भाव ... सुबह की रौशनी के आगोश में बचे रहे तो सूखे ख्वाब ...
ReplyDeleteक्या बात....बहुत खुबसूरत नज़्म ।
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