गुमशुदा से हो गए वो, शहर छोड़े बैठे हैं
हम तो उनकी चौखट से, आस जोड़े बैठे हैं.
है गुरूर या गैरत , गैरियत है या गफलत,
अपनी है गरज फिर भी,मुँह को मोड़े बैठे हैं
अर्ज़ पर, गुज़ारिश पर भी ,खफ़ा से रहते हैं,
क्या गुमान है इतना, दिल जो तोड़े बैठे हैं .
काश अब निकल जाए, सब गुबार ये दिल का,
कितने तूफान आँखों में, दिल निचोड़े बैठे है
अब उन्हें बुलाने को कोई गुमाश्ता भेजें,
कासिदों की तो हिम्मत वो, कबकी तोड़े बैठे हैं,
बेहतरीन गजल..
ReplyDelete:-)
dhanyvaad reena ji !
Deleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज के ब्लॉग बुलेटिन पर |
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन पर स्थान देने के लिए शुक्रिया ...
Deleteबढ़िया ...
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteबढिया
ReplyDeleteबहुत सुंदर
धन्यवाद मह्नेद्र जी!
DeleteBEHATAREEN GAZAL. KHOOBSHURAT AHSHAS
ReplyDeleteशुक्रिया अज़ीज़ जयपुरी साहब!
Deleteबहुत उम्दा प्रस्तुति आभार
ReplyDeleteआज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
अर्ज सुनिये
आप मेरे भी ब्लॉग का अनुसरण करे
दिनेश जी , आपके पधारने व कमेन्ट के लिए आभार!
Deleteगैरियत है कि गफ़्लत है ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रयोग ....!!
हरकीरत जी, हौंसला अफज़ाई के लिए शुक्रिया..
Deletesunder gajal
ReplyDeleteधन्यवाद !
Delete2nd wala sher wastav me lajabab ...:)
ReplyDeleteशुक्रिया मुकेश जी!
Deleteये दिल का गुबार ऐसे नहीं निकलने वाला ...
ReplyDeleteबहुत उम्दा गज़ल ...
अपना दिल का गुबार तो गज़ल कह के निकल जाता है दिगंबर जी ..बहुत बहुत धन्यवाद!
Deleteबेहतरीन एहसास ......
ReplyDeleteधन्यवाद निवेदिता!
Deleteबहुत उम्दा गज़ल है आपकी! बधाई स्वीकारें!
ReplyDeleteएक सलाह है आपको कि काफिया और बहर पर थोड़ा ध्यान दिया करें।
सादर!