कब मेरी बदनाम वफाओं ने, तुम्हें इल्ज़ाम दिया है,
ये तेरी ही जफ़ाएँ हैं जो, हंगामा मचा देती हैं.
दुनिया भी शातिर बड़ी कि धुआँ उठते देख,
आतिश-ए-इश्क की अफवाहें फैला देती है.
माहिर है बड़ी दुनिया, गढ़ने में नए अफ़साने,
हर बात का रुख अपने ही हिसाब से घुमा देती है .
भेजे भी न गए हमसे, जो पैगाम कभी तुम तक,
मजमून उन लिफाफों के, बतफ़सील बता देती है .
खताबार हो कोई और इलज़ाम किसी पे
खुद अपने ही कायदे नए , हर रोज बना लेती है
खाक कर दे न जिस्म, कही खलिश दिल की
भीतर से तो ये तपिश , दिन-रात जला देती है ......
बहुत जबरदस्त लिखा है। लेकिन आखरी 2 शेर में ''हर रोज बना लेती है ,''दिन रात जला देती है। होता तो नज्म के अशआर बराबर मिल जाते। खैर ,फिर भी नज्म बहुत अच्छी है।
ReplyDeleteधन्यवाद आमिर भाई, आपके सुझाव पर अमल कर लिया है..
ReplyDeleteबहुत खूब! बेहतरीन रचना...
ReplyDeleteधन्यवाद कैलाश जी!
Deleteवाह ,,,,बेहतरीन सुंदर गजल,,,बधाई,,,
ReplyDeleteRECENT POST: दीपों का यह पर्व,,,
धीरेन्द्र जी .आपका बाहु बहुत शुक्रिया!
Deleteमाहिर है बड़ी दुनिया, गढ़ने में नये अफसाने ...
ReplyDeleteबहुत खूब।
धन्यवाद सदा जी!
Deleteयशवंत जी ..हलचल में शामिल करने का शुक्रिया!
ReplyDeleteक्या कहने ...
ReplyDeleteबहुत ही बढियां गजल लिखा है..
अति सुन्दर...
:-)
धन्यवाद रीना जी,
Deletebahut hi sundar rachana likhi hai ap ne badhai shalini ji
ReplyDeleteनवीन जी, प्रशंसा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!
Deleteवाह....
ReplyDeleteबेहतरीन गज़ल....
हर शेर लाजवाब है..
अनु
अनु जी, तारीफ़ के लिए बहुत शुक्रिया !
Deleteबहुत खूब.....चौथा शेर सबसे बढ़िया लगा।
ReplyDeleteधन्यवाद इमरान जी!
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