बस पन्ने भर लेने से क्या, भरेगा मन का खालीपन,
क्या बाहर का शोर, मिटा, सकता अंतर का सूनापन|
व्यंग्य चमकता हो आँखों में, उपहास
छिपा हो लहजे में,
लब पर बोल प्रशंसा के क्या, ढक पाएँगे ये जालीपन |
साज-सँभाल-सुधार रहा है, जिसको देखो औरों को,
दूजों को सम्पूर्ण बनाने, निकल पड़ा अधूरापन|
मानवता का मोल लग रहा, भाव बकें बाजारों में,
इश्क-मुहब्बत-प्यार खोजता, देखो तो दिल का पागलपन |
हालात और माहौल बदल देते हैं सबकी
फितरत को,
सागर से मिल नदिया, खो मिठास बन गई खारापन
|
नकलीपन की आदत इतनी, पड़ गई है इंसानों को,
रास कहाँ आएगा उनको, गुल-उपवन का ताज़ापन |
हर एक घिरा है अपनी ही, मजबूरी के बोझ तले,
किससे दुखड़े मन के बाँटें, कम करने को भारीपन |
चाँदी की ये झलक लटों में, राज़ उम्र के देती खोल,
अब तो ढंग की बातें कर लो, करोगे कब तक बच्चापन|
प्रजातंत्र मज़ाक बन गया सत्ता के
गलियारों में,
जब-जब
झूठ के शोर के आगे, सच ने धारा गूँगापन|
द्वारा
शालिनी रस्तौगी
गुरुग्राम
22/12/2022
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