शाम से आँख में नमी-सी है,
आज फ़िर आपकी कमी-सी है
दफ़न कर दो हमें कि साँस मिले,
नब्ज़ कुछ देर से थमी-सी है
वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर,
इसकी आदत भी आदमी-सी है
कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी
एक तस्लीम लाज़मी-सी है।
सर्दियों की ठंडी रातों में पश्मीने की नर्म गर्माहट से भरे लफ़्ज़ों को नज्मों में पिरोने वाले हरदिल अज़ीज़ शायर गुलज़ार, चौका देने वाली उपमाओं से श्रोताओं को चमत्कृत करते , आसान पर सीधे दिल में उतर जाने वाली शायरी जो किसी को भी अपना मुरीद बना ले ऐसे फनकार गुलज़ार साहब का आज जन्मदिन है।
कोई शख्स शायद ही ऐसा होगा जो गुलज़ार की शायरी का दीवाना न हो| लाखों के महबूब शायर हरदिल अजीज़ गीतकार गुलज़ार को आज उनके जन्मदिन पर ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएँ। आज ही के दिन अर्थात् 18 अगस्त 1936 को दीना, जिला झेलम (अब पाकिस्तान) में जन्मे सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ़ गुलज़ार का बचपन दीना की गलियों में गुज़रा..। हिन्दुस्तान के विभाजन का ज़ख्म अपने सीने पर लिए गुलज़ार का परिवार अमृतसर आकर बस गया परन्तु गुलज़ार का अधिकतर समय दिल्ली में बिता। मुफलिसी के उस दौर में कभी पेट्रोल पम्प पर तो कभी गैराज में काम करने वाले गुलज़ार की
किस्मत में तो सबके दिलों पर राज करना लिखा था। जहाँ हाथ गाड़ियों के नट-बोल्ट कस रहे होते वहीं दिल-दिमाग शब्दों में उलझे नए नए शेर गढ़ रहे होते। कुछ समय बाद तो किस्मत उन्हें मुम्बई खींच लाई।
गुलज़ार प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन से भी जुड़ गए थे। यहीं काम करते हुए उनकी मुलाक़ात कई शायरों, नाटककारों और साहित्यकारों से हुई। इनमें से ही किसी ने गुलज़ार के पसंदीदा गीतकार शैलेन्द्र तक उन्हें पहुँचा दिया। इसी तरह उनकी मुलाक़ात संगीतकार एसडी बर्मन से भी हुई। बर्मन दा उस समय ‘बंदिनी’ फिल्म के लिए काम
कर रहे थे। शैलेन्द्र की सिफारिश पर गुलज़ार को एक गीत दे दिया गया। महताब की रौशनी की तरह उनकी प्रतिभा ने खुद ही अपना परिचय दे दिया और जीवन का पहला गीत मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे/ छुप जाऊंगी रात ही में, मोहे पी का संग दई दे.. मिला । साल था 1963 का। ख़ास बात यह थी कि गुलज़ार के सबसे पहले गीत को ही स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की आवाज़ मिली। फिर इसके बाद उन्हें
कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। प्रसिद्ध गीतकार, कवि, पटकथा लेखक, फ़िल्म निर्देशक तथा नाटककार न जाने कितनी ही भूमिकाओं में एक से एक नायब शाहकार रचते हुए गुलज़ार शोहरत के उस मुक़ाम तक जा पहुँचे हैं कि उनकी तारीफ़ आफ़ताब को दिए दिखाने बराबर है।
मई 15, 1973 को अभिनेत्री राखी-गुलज़ार ने साथ जीने-मरने की कसमें खाईं, लेकिन 3 साल में ही कसमों की ये डोर टूट गई और दोनों अलग हो गए। इस बीच एक बेटी मेघना उनकी ज़िन्दगी में आई। प्यार से गुलज़ार ने उसे बोस्की नाम दिया। बरसों से अलग-अलग रह रहे पति-पत्नी, राखी-गुलज़ार के बीच फ़िलवक़्त बोस्की ही एक कड़ी है। गुलज़ार अपने एकाकीपन को ख़ामोशी से जीने के साथ-साथ इस एहसास को लफ़्ज़ों का पैरहन ओढ़ाकर नए-नए शाहकार रच रहे हैं।
ऐ ज़िन्दगी गले लगा ले
हमने भी , तेरे हरेक रंग को
गले से लगाया है …है ना… पर ज़माने रंगों को अपनी ज़िन्दगी से विदा कर सफ़ेद पैरहन को जिस्म पर सजाए गुलज़ार मानो शायरी का ताजमहल बन गए हैं।
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