मैं हिंदी हूँ
मात्र एक भाषा नहीं, मैं भारत की वाणी हूँ
दुनिया में तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा
से अब सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा के स्थान को प्राप्त कर चुकी हमारी हिंदी को सर्वाधिक
सरल और वैज्ञानिक भाषा का गौरव प्राप्त है| दूसरी हिंदी ही वह भाषा है हमारी संस्कृति, सभ्यता और शाश्वत मूल्यों का
संरक्षण और पल्लवन किया है| यह भी सही है कि आज विश्व में हिंदी जानने-बोलने वालों
की संख्या बढ़ रही है, यहाँ तक कि विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा मंदारिन
को टक्कर देते हुए हिंदी उसके समकक्ष ही नहीं बल्कि उसके आगे आ खड़ी हुई है| मैंगलूर
के डॉ. जयंतीप्रसाद नौटियाल के शोध में यह बात सामने आई है कि अब हिंदी जानने वालो
की संख्या १३०० मिलियन हो गई है| मंदारिन से 200 मिलियन ज्यादा लोग हिंदी बोलते
हैं|
वैश्विक
पटल पर आज हिंदी ने अपनी एक ऐसी पहचान बना
ली है कि विश्व की महाशक्ति कहे जाने वाले देशों ने अरबों रुपयों का बजट हिंदी
शिक्षण के लिए निर्धारित किया है| भारत आज
विश्व बाज़ार में जिस शक्ति व सामर्थ्य के साथ उभर के आ रहा है, जाहिर है कि बिना
हिंदी को जाने यहाँ के बाज़ार में अपनी पैंठ बनाना असंभव है तो हिंदी को जानना, समझना और बोलना ही
होगा|
प्रश्न यह है कि क्या केवल बाज़ारीकरण के या
व्यावसायिक रूप से अधकचरी, अंग्रेज़ी के शब्दों के भार से लदी हिंदी का इस्तेमाल करने
से वास्तव में हिंदी को कोई लाभ हो रहा है। हिंदी का लचीलापन, अन्य भाषाओं को
स्वयं में समाहित करने की हिंदी की विशेषता ने हिंदी को आमजन की भाषा बनाया है, परन्तु
इस लचीलेपन का गलत फायदा उठाकर हिंदी को आम बोलचाल की भाषा बनाने के नाम पर हम
कहीं उसके स्वरूप को विकृत करते जा रहे हैं। अनेक हिंदी समाचार पत्र पत्रिकाओं ने तो हिंदी के आसान
शब्दों को भी अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों से बदलकर हिंदी का मज़ाक बनाने में कोई कसर
नहीं छोड़ी है| सामाजिक मीडिया पर हिंदी के बढ़ते वर्चस्व को देखकर जहाँ एक ओर
प्रसन्नता होती है वहीं दूसरी ओर रचनाओं में अशुद्ध वर्तनी, शाब्दिक तथा वाक्य
रचना सम्बन्धी अशुद्धियाँ मन को व्यथित भी करती हैं की हम अपनी ही भाषा को शुद्धता
के साथ नहीं लिख पाते|
परन्तु गौरतलब बात यह है कि जहाँ हिंदी के बिना
हमारा गुज़ारा नहीं है, वहीं को आज भी अंग्रेजी के आगे इसे दोयम दर्जे पर क्यों खड़ा
रहना पड़ रहा है? हमारी मानसिकता आज भी भाषाई गुलामी में जकड़ी क्यों अंग्रेज़ी के
आगे सिर झुकाए हुए है| “मैम, इसे तो हिंदी
बिलकुल ही लाइक नहीं है, इवन ही डस नॉट लाइक टू राईट इन हिंदी. व्हाट तू डू मैम ” –
युवा माँ बड़े गर्व के साथ इठलाते हुए हिंदी अध्यापिका को बता रही थी और अध्यापिका
दुःख मिश्रित विवशता के साथ उन माता-पिता के अंग्रेजी मिश्रित वार्तालाप को सुन
रही थी| ? आज भी अंग्रेजी में संभाषण या कम से कम 50 प्रतिशत अंग्रेजी शब्दों के
साथ हिंदी बोलने में लोग अपनी शान समझते हैं? कारण यह है कि जब आप के मन में हिंदी
बोलने के प्रति हीनभावना है तो आप कैसे उम्मीद कर सकतीं हैं कि बच्चे के मन में
अपनी भाषा के प्रति प्रेम और सम्मान पैदा होगा? जब आपका खुद का हिंदी ज्ञान अधकचरा
है तो आप भला बच्चे को हिंदी कैसे पढ़ाएँगी, कैसे उसके उच्चारण को शुद्ध कर सकती
हैं? जब प्रारम्भिक कक्षाओं से ही सभी विषयों का अध्ययन अंग्रेजी माध्यम से करवाया
जाता है तो बच्चे को हिंदी का अध्ययन निरर्थक लगने लगता है| शिक्षा के माध्यम के
रूप में हिंदी को अनुपयुक्त ठहराकर सभी विषयों की शिक्षा के लिए अंग्रेजी का चयन
करना कहाँ तक उपयुक्त है?
वे यक्षप्रश्न हैं जिनके उत्तर हमें शीघ्र ही
खोजने होंगे| और इनका उत्तर भी शायद हमें अपनी अंतरात्मा से ही मिलेगा| शिक्षा में
हिंदी को अनिवार्य करने का विरोध करने
वाले यह नहीं समझ रहे कि वे अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं| जितनी जल्दी हम इस बात को समझ जाएँगे कि हिंदी
का तिरस्कार करके हम अपनी जड़ों से कट रहें हैं, अपनी समृद्ध सभ्यता, संस्कृति तथा
मूल्यों से दूर जा रहे हैं, हमारे लिए बेहतर होगा| इस दिशा में नई शिक्षा नीति में
प्रारंभिक कक्षाओं में मातृभाषा में शिक्षा का प्रावधान करके अपनी भाषाओं के प्रति
सम्मान का भाव जागृत करने की पहल सराहनीय है| न केवल हिंदी वरन् अन्य भारतीय
भाषाएँ भी अपने उचित स्थान व सम्मान को प्राप्त कर पाएँगी|
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