Monday, 2 June 2014

एक ग़ज़ल ...
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कि ज़िम्मेदारियाँ औरों पे टाले जा रहे हैं हम
खता अपनी छिपा के और की गिनवा रहे हैं हम

बड़े-बूढ़े, सयाने जो यहाँ कहके गए अब तक
फ़कत उन बातों को ही अब तलक दुहरा रहे हैं हम.

कई बातें थीं कहने को, कई बातें थी सुनने को
जुबां की खामुशी पे अब तलक पछता रहे हैं हम

कदम बहके, नज़र धुंधली, ठिकाना भी नहीं कोई
खुदा जाने की किस मंजिल की जानिब जा रहे हैं हम

नहीं अपनी कोई खूबी जो है ये नूर चहरे पे
अजी उनसे ही मिलकर के अभी बस आ रहे हैं हम ..

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