Friday, 27 June 2014

मृगतृष्णा ( कुण्डलिया )

तृष्णा मृग की ज्यों उसे, सहरा में भटकाय |

तप्त रेत में भी उसे, जल का बिम्ब दिखाय ||


जल का बिम्ब दिखाय, बुझे पर प्यास न उसकी|


त्यों माया से होय , बुद्धि कुंठित मानव की ||


प्रज्ञा का पट खोल, नाम ले राधे - कृष्णा |


सुमिरन करते साथ, मिटेगी हरेक तृष्णा ||

8 comments:

  1. बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...

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  2. मान लेते हैं
    राधे राधे
    कृष्णा कृष्णा ।

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  3. bahut sundar ...maya ki mrigtirshna se koun bach paya hai bhala ..

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन हुनर की कीमत - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. बहुत सुंदर, सुमिरन करते साथ मिटेगी हरेक तृष्णा।

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  6. सच है कि माया ही मानव की बुद्धि को कुंठित करती है.... प्रभावशाली

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  7. सार्थक .. उसके सिमरन से सब दुःख मिट जायेंगे ...

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