क्यों मुक़र्रर है सज़ा मुख़्तसर सी, इस गुनाह-ए-अज़ीम की
कम होगा अगरचे, आतिश-ए-दोजख में भी जलाया जाए
अस्मत थी इक मजलूम की, कोई दूकान तो नहीं थी
भरपाई को जिसकी, चंद सिक्कों में गिनवाया जाए .
दरिंदगी का चेहरा था सरे आम, क्यों हिचक फिर भी,
इन्साफ तो तब है जब ,संग हरेक हाथ में पकडाया जाए .
क्यों हिचक फिर भी.....? प्रश्न तो बनता है शालिनी.....
ReplyDeleteबढ़िया पंक्तियाँ
ब्लॉग पर पधारने के लिए धन्यवाद डॉ. मोनिका... सही कहा आपने ..प्रश्न हर भारतीय के मन में उठ रहा है..
Deleteदामिनी का इन्साफ अधूरा है ,,,,भावनात्मक बेहतरीन अभिव्यक्ति ,,,,
ReplyDeleteRECENT POST शहीदों की याद में,
जी हाँ धीरेन्द्र जी ... सही इन्साफ नहीं हुआ उसके साथ,,
Deleteसधन्यवाद
बहुत खूब शालिनीजी ...इससे बढ़िया सज़ा ..तजवीज़ नहीं की जा सकती इनके लिए
ReplyDeleteशालिनी जी बहुत ही सुन्दर पेशकश मनमोहक हार्दिक बधाई
ReplyDeleteBahut umda.....shalini ji ...yahi saza ke haqdaar hai
ReplyDeletehttp://ehsaasmere.blogspot.in/
meri nayi rachna par swagat hai apka
दिल को छू गयी आपकी रचना...शालिनी जी !
ReplyDeleteऐसे पत्थर दिल इंसानों को संगसार ही किया जाना चाहिए... -इस केस में अब क़ानून को आँखों से पट्टी हटा देनी चाहिए...
~सादर!!!
वाह...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया अभिव्यक्ति शालिनी जी..
अनु
मार्मिक भाव लिए सुंदर रचना।
ReplyDeleteशालिनी जी मेरा राजेंद्र ब्लॉग बंद हो चुका है,कृपया इसका अपडेट चेंज कर लें,आभार।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteअच्छी रचना
इंसाफ़ तो जब है....बहुत खूब शालिनी मैम !
ReplyDeleteदिल छू गए आपके अश’आर
चंद सिक्के भरपाई नहीं हो सकते ... अब तो कठोर कार्यवाही हो तो कुछ राहत मिले ...
ReplyDeleteगहरा क्षोभ लिए ...
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