बेगैरती के हमाम में, आज सभी बेपर्दा हैं
स्याह सबके ही चहरे हैं ,
गुनाहों की स्याही से ,
आइना क्यों नहीं कोई कि
अपना भी चेहरा दिख सके
हरेक उँगली उठ रही
किसी दूसरे की जानिब
अपनी करतूतों के कैसे.
कोई हिसाब गिन सके
आज कौन इस वज़्म में
है दूध का धुला
कीचड़ में धँसे जो वो क्या
पाकीज़गी का दम भर सकें
आपने तो आज के दरिंदा सिफत लोगों का नक्षा खीच दिया। और कुछ आज के सियासी माहौल के भी अहवाल हैं।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया मैम
ReplyDeleteसादर
बहुत बढिया दमदार प्रस्तुति,,,बधाई
ReplyDeleterecent post : जन-जन का सहयोग चाहिए...
सही है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया..
ReplyDeleteसही कहा आपने ! सारे आईने टूट गए .... ऐसा लगता है ...
ReplyDelete~सादर!!!
वाह बहुत ही खुबसूरत.......दूसरों पर ऊँगली उठाने से पहले अपने गिरेहबान में झाँकना ज़रूरी है ।
ReplyDeleteशालनी जी बेहद शालीनता से भावों को व्यक्त किया है आपने, प्राणी को आईना दिखाती और समझाती सुन्दर रचना हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteसच है की अपनी करतूतों को कोई गिनना ही नहीं चाहता ...
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