इश्क पर ज्यों ज्यों कड़ा पहरा हुआ|
रंग इसका और भी गहरा हुआ|
कह रहे थे तुम कि गुनती जाती मैं|
यूँ अचानक आज इक मिसरा हुआ|
मुस्कुराते तुम कि झड़ते जाते गुल|
चुन रही थी मैं अजी गजरा हुआ|
यूँ रुका आँसू पलक
की कोर पर ,
फूल पर शबनम का कण ठहरा हुआ|
चाह कर भी कह न पाए राज़े-दिल,
इस जुबां पर लाज का पहरा हुआ|
ज़िन्दगी को रू-ब-रू पाया कभी,
यूँ लगा कि मीत हो बिसरा हुआ|
नदिया के जैसी रवानी चाहिए,
सड़ने लगता आब है ठहरा हुआ|
कौन समझाए किसे, फुरसत कहाँ,
घर बुजुर्गों के बिना बिखरा हुआ|
पीछे कमरे में पड़े माँ-बाप हैं,
ज्यों कबाड़ या कि फिर कचरा हुआ|
सुनते थे इन्साफ है अंधा मगर,
साथ में शायद है अब बहरा हुआ|
था विवश कर्जे से पहले ही कृषक
मार से मौसम की अब दुहरा हुआ|
हार्दिक आभार यशोदा जी
ReplyDeleteवाह्ह..लाज़वाब गज़ल शालिनी जी बहुत सुंदर👌👌
ReplyDeleteधन्यवाद श्वेता जी
Deleteइश्क पर ज्यों ज्यों कड़ा पहरा हुआ|
ReplyDeleteरंग इसका और भी गहरा हुआ|
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति है आपकी शालिनी जी। बधाई।
जीवन के विविध रंग प्रस्तुत करती ,हमारे एहसासों से गुज़रती ख़ूबसूरत ग़ज़ल। बधाई।
ReplyDeleteहार्दिक आभार रविन्द्र जी
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteशुक्रिया मीना ji
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteशुक्रिया सुशील जी
Deleteआपकी इस उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार पुरुषोत्तम जी .... बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteसुनते थे इन्साफ है अंधा मगर,
ReplyDeleteसाथ में शायद है अब बहरा हुआ|
बहुत ही सुन्दर.....
लाजवाब...
मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ बहुत दिनो के बाद आपको लिखते देखकर खुशी हुई।
ReplyDeleteसुधा जी एवं संजय जी आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteसुधा जी एवं संजय जी आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद
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