कभी
नष्ट नहीं हो पातीं,
चाहे
अचेतन की गहराई में दफनाओ,
या
चेतना की आग में जलाओ
अपनी
ही राख से
फिर-फिर
पैदा हो जाती हैं ...
फिनिक्स
जैसी|
कितनी
ही बार
अपने
ही हाथों क़त्ल किए जाने पर भी
अपने
ही रक्त में,
फिर
पनप जाती हैं
रक्तबीज-सी|
कामनाएँ
.... अमरता का
न
जाने कौन-सा वरदान ... या
अपूर्णता
का
कौन-सा
अभिशाप
साथ
लेकर जन्मती हैं|
छिन्न-विछिन्न
अपने
घावों को संग लिए
घिसती-भटकती
है
अश्वत्थामा-सी
..................कामनाएँ
शालिनी
रस्तौगी
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