कभी तपाक से मिलते थे, गले लगते थे, पास बिठाते थे
गैरियत का अब आलम देखो, दूर से ही कतरा के निकाल जाते हैं
बेतकल्लुफी इतनी थी कि, तू तड़ाक भी मीठी लगती थी
अब तो 'आप' और 'जनाब' से, फासले बढ़ाए चले जाते हैं .
खामियों पे चिढकर वो रूठना उनका, था दिल के बहुत करीब,
नज़रअंदाजी से उनकी मगर, दिल पे तेग से चल जाते हैं
लगाये नहीं लगता हमसे, उनकी बेरुखी का हिसाब ,
शिकवे-शिकायतें तो मुहब्बत के खाते में चल जाते हैं .
लाख दीवारों पार भी पहुँच जाती थीं दिल की सदाएं उन तक
अनसुना हर पुकार को कर, बेज़ार हो निकल जाते हैं.
सुन्दर रचना...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद !
Deleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
आभार यशवंत.
Deletesamay duriyan bana deti hai...
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा मुकेश जी.... ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद!
Deleteवाह जी वाह क्या बात खास के ये पंक्ति तो लाजवाब है
ReplyDeleteबेतकल्लुफी इतनी थी कि, तू तड़ाक भी मीठी लगती थी
अब तो 'आप' और 'जनाब' से, फासले बढ़ाए चले जाते हैं .
शुक्रिया अनंत जी!
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ReplyDeleteलगाये नहीं लगता हमसे, उनकी बेरुखी का हिसाब ,
शिकवे-शिकायतें तो मुहब्बत के खाते में चल जाते हैं ....वाह
रश्मि जी धन्यवाद!
Deleteलगाये नहीं लगता हमसे, उनकी बेरुखी का हिसाब ,
ReplyDeleteशिकवे-शिकायतें तो मुहब्बत के खाते में चल जाते हैं
बहुत बढ़िया
dhanyvaad वंदना जी
Deleteवाह.....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया.....
अनु
धन्यवाद अनु जी!
Deleteबहुत ही बढियां गजल लिखा है..
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन....
:-)
शुक्रिया रीना जी!
Deleteसुंदर रचना... एक नजर इधर भी... http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com
ReplyDeleteधन्यवाद कुलदीप जी ........
Deleteहलचल में शामिल करने के लिए शुक्रिया यशवंत.
ReplyDeleteवाह..... वाह बहुत ही खुबसूरत ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शव्दों से सजी है आपकी गजल ,उम्दा पंक्तियाँ ..
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