आज
न जाने कितने दिन बाद
खुद अपने साथ
अकेली हूँ मैं
कितने ही चेहरों-आवाजों,
किस्सों- कहानियों,
शिकवों शिकायतों,
हँसी-ठहाकों के बीच
खुद से मुलाकात ही
कहाँ हो पायी थी
कितना कुछ था कहने को,
बताने को , बतियाने को
पर इस जमघट में
कहाँ सुनोगी तुम अब मेरी
बस यही सोच,
झिझक में
दूर खड़ी
करती रही इंतज़ार
इस चिरपरिचित
तन्हाई का
जब सिर्फ मैं ही
अपने साथ में हूँ ........
बहुत बढ़िया मैम!
ReplyDeleteसादर
बड़े अनमोल पल होते हैं जो हमने खुद के साथ बिताये होते हैं......
ReplyDeleteयही तो हमारे व्यक्तित्व का विकास करते हैं....
सुन्दर भाव शालिनी
अनु
अपनी तन्हाई के साथ बातें करना कभी कभी अचा लगता है ... संजो के रखना जरूरी है ऐसे लम्हों कों ...
ReplyDeleteबहुत खूब ..
तन्हाई में ही आत्म निरीक्षण होता है.....सुन्दर विचार।
ReplyDeleteकरती रही इंतज़ार
ReplyDeleteइस चिरपरिचित
तन्हाई का
जब सिर्फ मैं ही
अपने साथ में हूँ ....
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति,,,सुंदर रचना,,,,
MY RECENT POST...:चाय....
बहुत सुन्दर भाव...
ReplyDeleteसुकुनभरी अहसास दिलाती
रचना...:-)
मैं और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करते हैं :)..बहुत सुन्दर अनुभूति है आपकी.
ReplyDeleteएक बेहतरीन भाव लिए सुंदर कविता.....बधाई
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
ReplyDeleteसुन्दर भाव शालिनी..
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