कितनी कसौटियाँ, कितनी
परीक्षाएँ,
तुम बनाते रहे ... हर बार
,
परखने को .... एक औरत का
किरदार |
हर बार,
अपने ही बनाए आदर्शों पर
तुमने उसे जाँचा - परखा –
घिसा – नापा - तोला,
और लगा दिया टैग ...
किसी पर पाकीज़ा .... किसी
पर दागदार
किसी पर बेगैरत ... किसी
पर गैरतदार |
बस अपने ही नजरिये से ,
अपने उसूलों के चश्में से
,
तुमने गहराई से देखा ,
उसका रोम-रोम, उसका तार-तार |
फिर खुद ही किया फैसला –
किसकी जगह घर, किसकी बाज़ार |
तुमने ही लगाईं बंदिशें,
तुमने ही तोड़ीं हदें,
तुमने बेपर्दा किया, तुमने ही परदे ढके|
हर बुराई के लिए ,
उसको बनाया गुनाहगार,
बार-बार, हर बार ......
कभी खुद को भी तो कसा
होता,
जाँचा – परखा – घिसा होता
|
उन्हीं मानकों, उन्हीं कसौटियों पर,
तपकर कभी निकले तो होते,
आदर्शों की उन भट्टियों
पर|
पिघलाया होता कभी,
पुरुषत्व का यह अहंकार,
अपनी गलतियों को कभी,’
गलती से ही कर लेते ... स्वीकार|
खुद के बनाए मानकों पर ,
खुद को धरते एक बार,
औरत बनकर देखते खुद
मर्दों की दुनिया के
अनाचार |
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