Sunday, 17 April 2022

कितनी कसौटियाँ

 

कितनी कसौटियाँ, कितनी परीक्षाएँ,

तुम बनाते रहे ... हर बार ,

परखने को .... एक औरत का किरदार |

हर बार,

अपने ही बनाए आदर्शों पर

तुमने उसे जाँचा - परखा – घिसा – नापा - तोला,

और लगा दिया टैग ...

किसी पर पाकीज़ा .... किसी पर दागदार

किसी पर बेगैरत ... किसी पर गैरतदार |

बस अपने ही नजरिये से ,

अपने उसूलों के चश्में से ,

तुमने गहराई से देखा ,

उसका रोम-रोम, उसका तार-तार |

फिर खुद ही किया फैसला –

किसकी जगह घर, किसकी बाज़ार |

तुमने ही लगाईं बंदिशें,

तुमने ही तोड़ीं हदें,

तुमने बेपर्दा किया, तुमने ही परदे  ढके|

हर बुराई के लिए ,

उसको बनाया गुनाहगार,

बार-बार, हर बार ......

कभी खुद को भी तो कसा होता,

जाँचा – परखा – घिसा होता |

उन्हीं मानकों, उन्हीं कसौटियों पर,

तपकर कभी निकले तो होते,

आदर्शों की उन भट्टियों पर|

पिघलाया होता कभी,

पुरुषत्व का यह अहंकार,

अपनी गलतियों को कभी,

गलती से ही कर लेते  ... स्वीकार|

खुद के बनाए मानकों पर ,

खुद को धरते एक बार,

औरत बनकर देखते खुद

मर्दों की दुनिया के अनाचार |

 

 

 

 

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