किश्तियाँ हैं ये कागज़ी , दूर तक चलेंगी क्या?
खुशबुएँ काग़ज़ी फूलों से, चमन को मिलेंगी क्या?
जुबां की नोक से जिसे चाक़ किए बैठे हो,
सुइयाँ फटे दिल का दामन सिलेंगी क्या?
लिख तो दिया है कि मुहब्बत है हमसे
रेत पे लिक्खी इबारतें टिकेंगी क्या?
एक चौराहे पे राहें जो जुदा हो गई हों ,
किसी चौराहे पे वो चारों फिर मिलेंगी क्या?
खून और आग से सींचा गया हो जिन्हें
बस्तियां उन वीरानों में फिर बसेंगी क्या?
गोलियाँ, गालियाँ, बदकारियाँ, दहशत औ वहशत
यहाँ फैला के उस जहान में हूरें मिलेंगी क्या?
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