बदकारियाँ कुछ एक की काबिज़ हुईं वहाँ
चुप्पी शरीफ़ लबों ने थीं ओढ़ ली जहाँ
हो मुखालिफ झूठ के, आवाज़ तो उठाओ
सच की आवाज़, शोर से कब तक दबे यहाँ।
दूर से हम बैठकर तमाशा देखेंगे अभी
आग अपने घर में है, अब-तक लगी कहाँ
देश की अस्मत से हमको वास्ता ही क्या
ज़िद हमारी पूरी हो, तमाशा देखे ये जहां
झुंड में निकले हो, ताकत का तमाशा है
सच था तो दिखावे की ज़रूरत थी कहाँ।
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