देखा है कभी
किसी दरख़्त को
जीवन का रस खो
ठूंठ में बदलते हुए
गर्वोन्मत्त शाखाएँ
जब एक एक कर होती
हैं
हरित श्री से विहीन
कैसे होता है
मान-मर्दन उसका
पीली पड़ती पत्तियां
जब
छोड़तीं साथ एक-एक कर
कैसे पल-पल छीजता है
उसका अस्तित्व
जमीन छोड़ देती है
जब साथ जड़ों का
उभर आती हैं धरती की
त्वचा पर
बुढ़ापे में उभरी
नसों-सी
फिर भी न जाने
किस जिजीविषा से
अपनी कंपकपाहट को
टाँगों में समेट
खड़ा रहता है मूक
दर्शक बन
परिवार के उपेक्षित
वृद्ध सम
मानो पूछता हो
हमेशा दिया ही तुमको
क्या माँगते हुए
देखा है कभी
..गहन भाव लिए बहुत ही सुंदर भवाभिव्यक्ति ....आग्रह है-- हमारे ब्लॉग पर भी पधारे
ReplyDeleteशब्दों की मुस्कुराहट पर ....दिल को छूते शब्द छाप छोड़ती गजलें ऐसी ही एक शख्सियत है
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteभावुक कर देने वाली रचना . कुछ न माँगने पर भी उपेक्षित जीवन जीना पड़े तो कैसा लगता होगा .
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, माँ सरस्वती पूजा हार्दिक मंगलकामनाएँ !
ReplyDeleteएक दरख़्त के ज़रिये इन्सान की कहानी कहती एक लाजवाब पोस्ट |
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteबसंतपंचमी की हार्दिक शुभकामनाऐ
RECENT POST-: बसंत ने अभी रूप संवारा नहीं है
भावपूर्ण बहुत सुंदर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteRECENT POST-: बसंत ने अभी रूप संवारा नहीं है
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteवाह ! अनुपम प्रस्तुति शालिनी जी ! एक वृद्ध वृक्ष का सटीक मानवीकरण किया है आपने ! बधाई स्वीकार करें !
ReplyDeletesundar prastuti ... jiwan ke katu stya ko pribhashit krti huyi :)
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति...
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