एक मुकम्मल हयात की तलाश में,
ताउम्र बेचैन, भटकते से रहे
दो जहाँ पाने की फ़िराक में,
न यहाँ के और न उस जहाँ के रहे
कभी इस कमी का रोना,
कभी उस कमी की खलिश
एक खुशी का सिर पकड़ते,
तो दूजे को छोड़ते हम रहे
क्या मिला, कितना मिला,
इसी हिसाब में खोया चैन औ क़रार
खुदा की नियामतों पे शक,
काफ़िर से हम करते रहे
ताउम्र बेचैन, भटकते से रहे
दो जहाँ पाने की फ़िराक में,
न यहाँ के और न उस जहाँ के रहे
कभी इस कमी का रोना,
कभी उस कमी की खलिश
एक खुशी का सिर पकड़ते,
तो दूजे को छोड़ते हम रहे
क्या मिला, कितना मिला,
इसी हिसाब में खोया चैन औ क़रार
खुदा की नियामतों पे शक,
काफ़िर से हम करते रहे
वाह क्या बात है बहुत सुंदर रचना. पढ़ कर एक नहीं उर्जा सी आ गई मन में !
ReplyDeleteलाजवाब!!!
बहुत बहुत धन्यवाद..... संजय जी!
Deleteएक खुशी का सिर पकड़ते,
ReplyDeleteतो दूजे को छोड़ते हम रहे
..............आपकी यह कविता प्रेम की उद्दात भावनाओं को प्रकट करती है.... बेहतरीन प्रस्तुति।
सच, असंतोष में जो मिला वह भी खो दिया...!
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति!
क्या मिला, कितना मिला,
ReplyDeleteइसी हिसाब में खोया चैन औ क़रार
खुदा की नियामतों पे शक,
काफ़िर से हम करते रहे
....बिलकुल सच...बहुत सुंदर
धन्यवाद कैलाश जी,अनुपमा जी एवं संजय जी ........ हार्दिक आभार !
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteखुदा की नियामतों पे शक,
काफ़िर से हम करते रहे ...
बहुत खूब...
धन्यवाद विद्या!
Deleteअल्टीमेट... बेहद खुबसूरत रचना.
ReplyDeleteधन्यवाद लोकेन्द्र जी,
Deleteयही चलता है सिलसिला ... पाना खोना ... खोते जाना
ReplyDeleteबस इसी पाने-खोने का हिसाब लगाने के चक्कर मे जिन्दगी क आनन्द खत्म हो जात है ..... धन्यवाद रश्मि जी !
Deleteवाह क्या बात है ...
ReplyDeleteकभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता ... तो इस हयात की तो बात ही क्या ...
पर चहत तो सभी को होती है इस मुकम्मल जहां की.... धन्यवाद दिगंबर जी,
Deleteबेहतरीन रचना।
ReplyDeleteसादर
क्या मिला, कितना मिला,
ReplyDeleteइसी हिसाब में खोया चैन औ क़रार
खुदा की नियामतों पे शक,
काफ़िर से हम करते रहे
खुबसूरत और शानदार आखिरी वाली ये पंक्तियाँ सबसे बढ़िया.......फुर्सत मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आयें।
धन्यवाद, इमरान जी! आपके ब्लोग पर आपकी नयी रचना बहुत अच्छी लगी ....
Delete"खुदा की नियामतों पे शक,
ReplyDeleteकाफ़िर से हम करते रहे "
क्या बात कही है शालिनी मैंम ! बहुत सुंदर
धन्यवाद सुशीला जी!
Deleteखूबसूरत रचना
ReplyDeleteसंगीत जी, बहुत बहुत धन्यवाद!
Deleteधन्यवाद, यशवन्त जी!
ReplyDeleteबहूत हि सुंदर,,
ReplyDeleteसुंदर भाव अभिव्यक्ती...
सुंदर कविता.
ReplyDeleteधन्यवाद भारत भूषण जी !
Deleteकभी किसीको मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
ReplyDeleteकहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता ... सुन्दर अभिव्यक्ति !!!
धन्यवाद सरस जी!
Deleteक्या मिला, कितना मिला,
ReplyDeleteइसी हिसाब में खोया चैन औ क़रार
खुदा की नियामतों पे शक,
काफ़िर से हम करते रहे
WAH GAJAB KA LIKHA HAI APNE ....BADHAI SHALINI JI.
बहुत बहुत धन्यवाद नवीन जी!
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