Friday, 3 January 2025

किन भावों का वरण करूँ मैं?

 हर पल घटते नए घटनाक्रम में,

ऊबड़-खाबड़ में, कभी समतल में,
उथल-पुथल और उहापोह में,
किन भावों का वरण करूँ मैं ?
एक भाव रहता नहीं टिककर,
कुछ नया घटित फिर हो जाता|
जब तक उसको मैं सोचने बैठूँ,
किसी और दिशा कुछ ले जाता|
क्या-कुछ-कब-कैसे-कितना के ,
चक्कर में कब तक भमण करूँ मैं?
किन भावों का वरण करूँ मैं?
विद्रूप-विकट कुछ घट जब मन में,
विद्रोह-विषाद-विरक्ति लाता |
सब तहस-नहस कर नव रचना को,
हो अधीर मन है अकुलाता|
कर चिंतन एक नई आस का,
नैराश्य-त्रास का क्षरण करूँ मैं|
किन भावों का वरण करूँ मैं?
कुछ मेरे अंतस के सपने,
सपनों में धूमिल होते अपने|
अपनों को चुनना या सपने बुनना,
किसको पाने में छूटे कितने |
हानि-लाभ क्या गणन करूँ मैं ?
किन भावों का वरण करूँ मैं?
~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

सरस्वती (दूसरे पक्ष का पक्ष)

 सरस्वती (दूसरे पक्ष का पक्ष)

~~~~~~~~
स्त्री ने पुरुष से कहा-
‘तुमने ही दिया है मुझे
.....सारा दर्द-सारी पीड़ा’|
फिर उसने खोली,
अपने आरोपों की पोटली,
और एक-एक कर गिनवाए,
वे सभी ज़ख्म,
जो दिए थे पुरुष ने उसे ... कभी |
उन आरोपों की झड़ी और
स्त्री आँखों से बहती गंगा-जमुना में,
भीगा पुरुष ... अपराधबोध से ग्रसित,
सिर झुका सुनता रहा ... बहुत देर तक,
चुपचाप .... अपनी पीड़ा को समेटे|
पर .... उसके पास भी थे अपने दर्द,
कुछ अनकही शिकायतें,
कुछ बहुत पुराने ज़ख्म ...
उसके अंतस में बह रही थी,
दर्द की एक नदी .... जो,
आँखों से बह निकलने को,
उफनी, मचली, बार-बार टकराई ...
उस उपरी चट्टानी परत से,
जिसे रचा था पुरुष ने ही,
अपने चारों ओर..... पर,
न तोड़ पाई वह ... आँखों पर बँधे बाँध |
और फिर एक बार,
पुरुष का दर्द ....
बन गया उसकी चिल्लाहट,
जो दुनिया ने सुनी |
फिर नज़र नहीं आई किसी को
स्त्री की आँखों से बहती,
गंगा-जमुना की बाढ़ के आगे,
पुरुष अंतस में,
अदृश्य हो बह रही ...
सरस्वती !!
~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

सनातन

 अपने देवी- देवताओं को हमने,

नहीं बनाया ,
अपनी प्रेरणा का स्रोत,
मात्र श्रद्धा और आस्था का केंद्र बनाकर,
लीन हो गये भक्ति में…..
हमने देखे ,
केवल अभय मुद्रा में उठे ,
उनके हाथ ,
और उनको अपनी रक्षा की ज़िम्मेदारी सौंप,
स्वयं हो गए,
निष्क्रिय ….
नहीं देखे हमने,
अस्त्र-शस्त्र से सज्जित,
उनके दूसरे हाथ।
नहीं दिखे हमें,
उनके चरणों में पड़े ,
शिरछिन्न असुर ।
कुछ तो ली होती प्रेरणा,
कुछ तो अपनाया होता उनका चरित्र ,
तो आज नहीं कहते ,
ख़तरे में है …….
सनातन

मन मेरा किस पार चला

 


मन मेरा किस पार चला

छोड़कर अपना किनारा,
तोड़कर बंधन यह सारा,
खोलकर चिंतन की नौका,
ले मनन पतवार चला
मन मेरा किस पार चला ...
१.
न कोई दिशा, न कोई लक्ष्य है,
न पथ कोई, न पता समक्ष है,
किस मार्ग से जाऊँ, बताए,
कौन गुरु जो ऐसा दक्ष है ?
अनसुलझे प्रश्नों का ये, सिर पे ले अंबार चला
मन मेरा किस पार चला
२.
कौन अपनी ओर खींचता?
वहाँ कौन है मुझको बुलाता ?
किस आकर्षण से बँधी जो,
अज्ञात होकर भी लुभाता ?
अप्रत्यक्ष को पाने को मन यह, देखो तज के संसार चला|
मन मेरा किस पार चला ....
ये जग कब-कैसे छूटेगा?
ये बंधन कैसे टूटेंगे?
माया-मोह और जड़ता ये,
दस्यु कब तक मन लूटेंगे?
विद्रोह, विरक्ति, व्याकुलता, द्वंद्व यह अपरंपार चला|
मन मेरा किस पार चला ....
~~~~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तौगी

सोऽहं

 

सोऽहं

मैं एक कण , मैं ब्रह्माण्ड,

इस सृष्टि में, सृष्टा का मान |

सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म मैं,

और व्यापक से व्यापक परिमाण |

यत्र-तत्र-सर्वत्र मैं ही

और मैं ही अकिंचनता का भान |

मेरी परिधि में विश्व बँधे और

मैं एक बिंदु, शून्य समान |

मैं कर्ता, मैं ही हूँ कर्म,

मैं ही कर्मों का परिणाम |

मैं कारक हूँ, मैं कारण हूँ,

मैं बीज तत्त्व, मैं वृक्ष समान|

क्या देह समझते हो मुझको ....?

मैं आत्म तत्त्व, परमात्म अंश,

सृष्टा से परे कब, मेरी पहचान |

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द्वारा शालिनी रस्तौगी

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