कभी इच्छाओं पर
कभी ख्वाहिशों पर
कभी आँखों, कभी कानों, कभी जुबाँ पर
वो एक – एक कर ताले जड़ती गई
चाभियों को संभाला तो था ....
कि कभो वक्त मिलेगा
कभी तो वह मौका आएगा ..
फिर खोल लेगी वह
इन
तालों को
आज़ाद कर लेगी ख़ुद को
अपनी ही कैद से
पर .. अब जब वक़्त मिला है तो
उन जाम हुए तालों
और जंग खाई चाभियों के गुच्छे लिए
ढूँढती वह
किस ख्वाहिश पे लगे ताले को
खोले किस चाभी से ...
एक बार फिर क़ैद रह गईं
उसकी जुबाँ .... उसकी इच्छाएँ
उसकी ख्वाहिशें
...
शालिनी रस्तौगी
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