Thursday 31 March 2016

अश्वत्थामा

अश्वत्थामा बन गई है वो,
अपने पकते-रिसते घाव को
अंतरात्मा पर ढोती,
मूक पीड़ा को पीती|
शुष्क आँसुओं के कतरों की 
चुभन आँखों में लिए
फिर रही है|
हाँ, अश्वत्थामा बन गई है वो ....

भेद जाती हैं कान
अंतस से उठती आवाजें
अपने ही मन के कुरुक्षेत्र में 
अपना ही रचा महाभारत 
लड़ रही है वो
हाँ, अश्वत्थामा बन गई है वो 
पीड़ा, घुटन, रुदन का 
सदियों तक 
अभिशाप झेलना 
बन चुकी है उसकी नियति 
आखिर क्यों न हो 
परिणाम समान 
जब
पाप भी हुआ था  समान.... 
अपनी मौन, संज्ञाशून्य सहमति को 
बना ब्रह्मास्त्र 
खुद अपने ही गर्भ पर कर प्रहार 
हाँ, बन गई है वो 
अश्वत्थामा........



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