जाने किस बहकावे में आकर
उर्वरा धरती को
चढ़ी है जिद
साबित करने की खुद को ऊसर
अपनी हरियाई कोख को
पीट- पीट कर रही विलाप
अकूत सम्पदा को आँचल में छिपाए
आँखों में आँसू, होंठों पर गुहार लिए
मांगती फिर रही
अनाज के दो दाने
आक्रोश से फटी पड़ती है
कि भीतर के लावे से
सब कुछ ख़ाक कर देने को आतुर
वीर प्रसविनी आज
भक्ष रही निज पूतों को
जाने किस बहकावे में
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शालिनी रस्तौगी
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25-02-2016 को चर्चा मंच पर विचार करना ही होगा { चर्चा - 2263 } में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
हार्दिक आभार दिलबाग विर्क जी
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...वर्तमान सन्दर्भ बिलकुल सत्य लिख दिया आपने
ReplyDeleteधन्यवाद प्रभात जी
Deleteसुंदर भावनायें और शब्द भी.बेह्तरीन अभिव्यक्ति!शुभकामनायें. और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
ReplyDeleteमदन मोहन सक्सेना
शुक्रिया मदन जी
Deleteआपने लिखा...
ReplyDeleteकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 26/02/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 224 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
शुक्रिया कुलदीप जी
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteहार्दिक अआभर रश्मि जी
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