Tuesday, 23 February 2016

त्रिवेणी


बहुत मुश्किल रहा तोड़ना दीवारें भरम की।
कितने जतन से खुद, चिना था हमने जिन्हें ।
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सच है कि अपनी कैद से रिहाई आसाँ नहीं होती।

2.
दिमाग का सुकूँ देके , जिस्म का आराम खरीदा है।
पैसों के एवज रूह बेच, जी का जंजाल खरीदा है
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जाने क्यों घाटे की तिजारत में लगी है दुनिया ?

3.
कभी झांकती हैं मन में , कभी सेंध लगाती हैं 
कहीं रहूँ मैं, हर घडी इर्द-गिर्द ही मंडराती हैं 
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जाने चोर हैं कि जासूस ... तुम्हारी आँखे

4.
यादों के कुएँ से.मशक भरने का 
रोज़गार दिमाग को दे रखा है 
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अजीब लम्हे हैं फुर्सत के... एक पल को खाली रहने नहीं देते

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