Sunday 22 May 2011

मन की आह

मन की आह, जब राह नहीं पाती
भटकती सी फिरती है
चौराहे पर खड़ी
दिग्भ्रमित सी
चहुँ ओर तकती है राह
हर दिशा है अन्जानी
हर गली है बेगानी सी
गैरों से पूछती है पता कभी
गलियारों में घूमती बेवज़ह कभी
और कभी
मील के पत्थर पर बैठ कभी
राहगीरों के पदचिह्न गिनती है
कोई तो राह होगी
जो मंज़िल तक ले जायेगी
और चैन पा जाएगी
ये मन की आह..............

5 comments:

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