अपनी संस्कृति और परम्पराओं पर
नाज़ करने वाले
तथाकथित, एक सभ्य समाज में
सरे आम ....
बस एक केस बनकर
फाइलों में दब जाती हैं औरतें
हाँ , केस बन जाती हैं
जीती जागती औरतें |
फिर शुरू हो जाती है एक लम्बी प्रक्रिया
या कहें .. प्रतीक्षा
न्याय की ,
इस न्याय को पाने के लिए
जाने कितने अन्याय झेलती हैं औरतें
हाँ,
न्याय की अंधी मूरत के सामने
खुद विवशता की मूरत बन जाती हैं औरतें |
दोहराई जाती है फिर–फिर
अमानवीयता ही नहीं
पैचाशिकता की
दुसह्य गाथा
और थरथरा जाती हैं फिर-फिर
मात्र रूह बनकर रह गई औरतें|
कुछ पोस्टरों
कुछ नारों
कुछ कैंडल मार्च के बीच
आज़ाद घूमते या
जेल में मटन करी खाते
दरिंदों के
भरे पेट और भूखी आँखों से
टपकती लार देख
फिर सुलग उठते हैं उनके
जले , क्षत-विक्षत तन
फिर एक और मौत मर जाती हैं
वो मर चुकी या
अधमरी औरतें |
हाँ, लोगों के लिए तो बस
एक केस बन जाती हैं औरतें |
और्रतों का चल-चलन का पाठ पढ़ाते
पहनने-ओढ़ने का सलीका सिखाते
उनके हँसने-बोलने पर बदचलनी का सर्टिफिकेट दिखाते
समाज की पट्टी बँधी आँखों को
दुधमुँही बच्चियों के
नुचे हुए नर्म जिस्म दिखा
लड़कों की परवरिश पर
सवाल उठाती हैं
समाज को उसकी वहशत का आइना दिखाती हैं
खुद वहशत का शिकार बनीं औरतें|
केस-दर-केस ..... केस-दर-केस
अनसुलझी गुत्थियों में उलझीं
समाज के सियाह पैरहन पर
आदमी की दरिंदगी का मैडल बन
लटक जाती हैं औरतें ......
शालिनी रस्तौगी
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