Sunday, 4 August 2019

दौर ए उदासी

दौर ए उदासी से खुद को बचा रही हूँ।
बैठे-बैठे बेवज़ह ही मुस्कुरा रही हूँ।

दिल के पास जाने दिमाग क्यों नहीं,
दिल की नादानियों पे पछता रही हूँ।

समझना होगा तो खुद ही समझ जाएगा,
नासमझ को जाने क्यों समझा रही हूँ।

ग़म पोश ज़िन्दगी में है खुशी कहाँ छिपी
नक़ाब दर नकाब मैं उठा रही हूँ।

शीशे के ख़ाब टूट के पलकों में जा चुभे,
किरच-किरच बीन फिर-से सजा रही हूँ।
 Shalini Rastogi

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