Saturday, 30 September 2017

प्राण वायु

प्राण वायु आदर्श की, होती दिन-दिन क्षीण|
मानवता का दम घुटा, बढ़ा स्वार्थ संकीर्ण||
बढ़ा स्वार्थ संकीर्ण, हो किस पर क्या विश्वास|
देते थे जो प्राण, छीनते आज वे श्वास||
नैतिकता औ मूल्य, घायल बिंध लालच बाण|
प्राण-वायु हर गई, अबोध शिशुओं के प्राण ||

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