वज़नदार होते हैं
झूठ के पाँव,
जब भी मन में चलता
रौंदता निकल जाता है....
निश्छल भोले-भाले भावों को |
और चेहरे की मासूमियत पर
छोड़ जाता है छाप
अपने कदमों की|
और मलिनता की कालिख से
विद्रूप कर देता है
वो निश्छलता|
इसके बोझ तले दबी आत्मा
छटपटाती है,
मुक्त होने को अकुलाती है|
झूठ पनपता ही है
ज़मीर को कुचलकर,
आत्मा को मसलता
आखिर पाँव झूठ के
होते हैं वज़नदार |
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तोगी
झूठ के पाँव,
जब भी मन में चलता
रौंदता निकल जाता है....
निश्छल भोले-भाले भावों को |
और चेहरे की मासूमियत पर
छोड़ जाता है छाप
अपने कदमों की|
और मलिनता की कालिख से
विद्रूप कर देता है
वो निश्छलता|
इसके बोझ तले दबी आत्मा
छटपटाती है,
मुक्त होने को अकुलाती है|
झूठ पनपता ही है
ज़मीर को कुचलकर,
आत्मा को मसलता
आखिर पाँव झूठ के
होते हैं वज़नदार |
~~~~~~~~~~~
शालिनी रस्तोगी
वजनदार
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